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*दादू काम धणी के नाम सौं, लोगन सौं कुछ नांहि ।*
*लोगन सौं मन ऊपली, मन की मन ही मांहि ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ मध्य का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(४)ब्राह्मसमाज, ईसाई धर्म तथा पापवाद*
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"निर्जन में दही जमाकर मक्खन निकाला जाता है । ज्ञान और भक्तिरूपी मक्खन अगर एक बार मनरूपी दूध से निकाल सको, तो संसाररूपी पानी में डाल देने से वह निर्लिप्त होकर पानी पर तैरता रहेगा; परन्तु मन को कच्ची अवस्था में - दूधवाली अवस्था में ही - अगर संसाररूपी पानी में छोड़ दोगे, तो दूध और पानी एक हो जायेंगे, तब फिर मन निर्लिप्त होकर उससे अलग न रह सकेगा ।
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“ईश्वर प्राप्ति के लिए संसार में रहकर एक हाथ से ईश्वर के पादपद्म पकड़े रहना चाहिए और दूसरे हाथ से संसार का काम करना चाहिए । जब काम से छुट्टी मिले, तब दोनों हाथों से ईश्वर के पादपद्म पकड़ लो, तब निर्जन में वास करके एकमात्र उन्हीं की चिन्ता और सेवा करते रहो ।"
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सब-जज - (आनन्दित होकर) - महाराज, यह तो बड़ी सुन्दर बात है । एकान्त में साधना तो अवश्य ही करनी चाहिए । यही हम लोग भूल जाते हैं । सोचते हैं, एकदम राजा जनक हो गये । (श्रीरामकृष्ण और दूसरे हँसते हैं ।) संसार का त्याग करने की जरूरत नहीं, घर पर रहकर भी लोग ईश्वर को पा सकते हैं - यह सुनकर मुझे शान्ति और आनन्द हुआ ।
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श्रीरामकृष्ण - तुम्हें त्याग क्यों करना होगा ? जब लड़ाई करनी है, तो किले में रहकर ही लड़ाई करो । लड़ाई इन्द्रियों से है, भूख-प्यास इन सब के साथ लड़ाई करनी होगी । यह लड़ाई संसार में रहकर ही करना अच्छा है । तिस पर कलिकाल में प्राण अन्नगत हैं, बाहर कभी खाना न मिला, तो उस समय ईश्वर-फीश्वर सब भूल जायेंगे ।
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किसी ने अपनी बीबी से कहा - 'मैं संसार छोड़कर जाता हूँ ।' उसकी बीबी कुछ समझदार थी । उसने कहा - क्यों तुम चक्कर लगाते फिरोगे ? अगर पेट भरने के लिए दस घरों में चक्कर न लगाना पड़े तब तो कोई बात नहीं, जाओ, लेकिन अगर चक्कर लगाना पड़े तो अच्छा यही है कि इसी घर में रहो ।'
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“तुम लोग त्याग क्यों करोगे ? घर में रहने से तो बल्कि सुविधाएँ हैं । भोजन की चिन्ता नहीं करनी होती । सहवास भी पत्नी के साथ, इसमें दोष नहीं है । शरीर के लिए जब जिस वस्तु की जरूरत होगी वह पास ही तुम्हें मिल जायेगी । रोग होने पर सेवा करनेवाले आदमी भी पास ही मिलेंगे ।
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"जनक, व्यास, वशिष्ठ ने ज्ञानलाभ कर संसार धर्म का पालन किया था । ये दो तलवारें चलाते थे । एक ज्ञान की और दूसरी कर्म की ।”
सब-जज - महाराज, ज्ञान हुआ यह हम कैसे समझें ?
श्रीरामकृष्ण - ज्ञान के होने पर फिर वे दूर नहीं रहते, न दूर दीख पड़ते हैं, और फिर उन्हें ‘वे’ नहीं कह सकते, फिर 'ये' कहा जाता है । हृदय में उनके दर्शन होते हैं । वे सब के भीतर हैं, जो खोजता है, वही पाता है ।
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सब-जज - महाराज, मैं पापी हूँ । कैसे कहूँ - वे मेरे भीतर हैं ?
श्रीरामकृष्ण - जान पड़ता है तुम लोगों में यही पाप पाप लगा रहता है - यह क्रिस्तानी मत है, नहीं ? मुझे किसी ने एक पुस्तक - बाइबिल(Bible) – दी । उसका मैंने कुछ भाग सुना । उसमें बस वही एक बात थी - पाप-पाप ! मैंने जब उनका नाम लिया - राम या कृष्ण कहा, तो मुझे फिर पाप कैसे लग सकता है - ऐसा विश्वास चाहिए । नाम माहात्म्य पर विश्वास होना चाहिए ।
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सब-जज - महाराज, यह विश्वास कैसे हो ?
श्रीरामकृष्ण - उन पर अनुराग लाओ । तुम्हीं लोगों के गाने में है - 'हे प्रभु, बिना अनुराग के क्या तुम्हें कोई जान सकता है, चाहे कितने ही याग और यज्ञ क्यों न करे ?' जिससे इस प्रकार का अनुराग हो, इस तरह ईश्वर पर प्यार हो, उसके लिए उनके पास निर्जन में व्याकुल होकर प्रार्थना करो और रोओ । स्त्री के बीमार होने पर, व्यापार में घाटा होने पर या नौकरी के लिए लोग आँसुओं की धारा बहा देते हैं, परन्तु बताओ तो, ईश्वर के लिए कौन रोता है ?
(क्रमशः)
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