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*कबहूँ पावक कबहूँ पाणी, धर अम्बर गुण बाइ ।*
*कबहूँ कुंजर कबहूँ कीड़ी, नर पशुवा ह्वै जाइ ॥*
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श्री रज्जबवाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*सर्व गुण अर्थी का अंग १७८*
इस अंग में सभी गुण काम के हैं यह विचार दिखा रहे हैं ~
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रज्जब दीन१ ऊरमी२ काम की, ऊपजै३ अर्थ४ विवेक५ ।
ज्यों नीचे उंचे कर चलत, डोरी में बल एक ॥१॥
जैसे नीचे और ऊँचे दोनों ओर हाथ चलते हैं तब डोरी में एक ही बल आता है । वैसे ही विचार५ द्वारा देखें तो दीनता१ और अभिमान२ दोनों ही वस्तु काम की हैं । दोनों से प्रयोजन४ सिद्ध३ होते हैं ।
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रज्जब दुष्ट दीनता काम की, जे हरि मारग होय ।
ज्यों वर्षा बादल मिलैं, आँम्हें१ साँम्हें२ जोय३ ॥२॥
देखो३, जैसे आमने१ सामने२ दो विरोधी बादल मिलते हैं तब वर्षा होती है । वैसे ही यदि हरि मार्ग में दुष्टता और दीनता दोनों विरोधी गुण मिल जाय तो भी काम के ही होते हैं अर्थात संतों से दीनता और मनादि को मारने की दुष्टता मुक्तिरूप कार्य को सिद्ध करने वाली ही होती है ।
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रज्जब प्राणि पखावजी, पिंड पखावज साज ।
द्वै दिशि नौ सत मारिये, सो सेवा स्वर काज ॥३॥
प्राणी तो मृदंग बजाने वाला है और शरीर मृदंग नामक बाजा है । जैसे मृदंग के दोनों ओर नौसत अर्थात सोलह बोल - जिनमें ८ तो दाहिने हाथ से और पांच बायें हाथ से तथा ३ दोनों हाथों से मारे जाते हैं, वे स्वर की सेवा के लिये मारे जाते हैं अर्थात उनसे स्वर ठीक बांधा जाता है, वे प्राचीन काल के १६ स्वर अक्षर ये हैं - दक्षिण कर से - त१, द२, धी३, थु४, टे५, हं६, न७, दी८ । वामकर के पांच - तट९, ल१०, हा११, दध१२, ला१३ । दोनों करो से तीन धा१४, फड़ान१५, धत१६ ।
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वर्तमान में बजाये जाने वाले मृदंग के १६ स्वर और अक्षर ये हैं - दक्षिण कर से आठ - का१, के२, दिन३, दिन४, टे५, ना६, डी७, ठू८ । वाम कर से चार - तत९, थू१०, इ११, कू१२ । दोनों करों से चार - धा१३, कड़ान१४, धे१५, धेत१६ । जैसे उक्त सोलह से स्वर की सेवा होती है, वैसे ही प्राणी दश इन्द्रिय, पांच प्राण, एक मन इन सोलह को संयम से रखता है या दश इन्द्रिय, काम, क्रोध, मोह, अभिमान, द्वेष इन १६ को मारता है तब प्रभु की सेवा होती है । अत: मन इन्द्रियादि सभी काम के हैं ।
(क्रमशः)
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