सोमवार, 17 जनवरी 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१५७

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१५७)*
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*१५७. चौताल*
*आदि काल अंत काल, मध्य काल भाई ।*
*जन्म काल जुरा काल, काल संग सदाई ॥टेक॥*
*जागत काल सोवत काल, काल झंपै आई ।*
*काल चलत काल फिरत, कबहूँ ले जाई ॥१॥*
*आवत काल जावत काल, काल कठिन खाई ।*
*लेत काल देत काल, काल ग्रसै धाई ॥२॥*
*कहत काल सुनत काल, करत काल सगाई ।*
*काम काल क्रोध काल, काल जाल छाई ॥३॥*
*काल आगै काल पीछैं, काल संग समाई ।*
*काल रहित राम गहित, दादू ल्यौ लाई ॥४॥*
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भाव्दी०-शैशवादारभ्य वृद्धावस्थापर्यन्तं जनोऽयं हरिं विहाय भोगवासनासक्त: प्रमाद्यति । प्रमाद एव मृत्युः । प्रमादस्य मृत्युरूपता तु सनत्सुजातीयोपनिषदि वर्णिता । अत: सर्वाष्ववस्थासु प्रमादरूपः कालो नृत्यति, न च तं कोऽपि वेत्ति । पश्यतो गच्छत: स्वपतो जाग्रतःश्वसतो वदतो गच्छतः शृण्वतो जनान् कालो असते । प्रमाद एव कामक्रोधादिरूपेण सर्वत्र व्याप्तोऽस्ति । कामक्रोधादयः शत्रवो मनसि निवसन्त: सततं जीवात्मानं प्रहरन्ति । अग्रत: पृष्ठतोऽधश्चोर्ध्वच सर्वत्र कालस्यैव साम्राज्यं परिस्फुरति । अतस्तन्निवृत्त्यर्थ कालातीतं श्रीराममेव भज ।
वासिष्ठे मुमुक्षुव्यव ::
मनोमोहवने ह्यस्मिन् वेगिनी सरित् ।
शुभाशुभवृहत्कूला नित्यं वहति जन्तुषु ॥३३॥
सा हि स्वेन प्रयत्नेन यस्मिन्नेव निपात्यते ।
कूले तेनैव वहति यथेच्छसि कुरु ॥३४॥
उक्तं हि सनत्सुजातीयोपनिषदि-
उभे सत्ये क्षात्रियाद्यप्रवृत्ते मोहो मृत्युः संमतो यः कवीनाम् ।
प्रमादं वै मृत्युमहं ब्रवीमि सदाऽप्रमादादमृतत्वं ब्रवीमि ॥
अत्र शाङ्करभाष्यम्-
कस्तर्हि मृत्युः ? यो मोहो मिथ्याज्ञानम्, अनात्मनि आत्मत्वाभिमान: स मृत्युः, केषांचित्कवीनां मतः । अहन्तु न तथा मृत्यु ब्रवीमि । कथं तर्हि ? प्रमादं वै मृत्युमहं ब्रवीमि । प्रमादः प्रच्युति: स्वाभाविक- ब्रह्मभावात् । तं मिथ्याज्ञानस्यापि कारणम् । आत्माऽनवधारणमात्माऽज्ञानं मृत्यु जननमरणादिसर्वाऽनर्थबीजमहं ब्रवीमि । तथा सदाऽप्रमादम्- स्वाभाविक स्वरूपेणावस्थानम् अमृतत्वं ब्रवीमि । अतएव श्रुतिरपि स्वरूपावस्थानमेव मोक्षपदं दर्शयति । परंज्योतिरूपसंपद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते इति । तस्मात्कालातीतं श्री राममेवानुसृत्य साधकेन स एव ध्यातव्यः ।
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बालकपन से वृद्धावस्था पर्यन्त यह मानव हरि को त्यागकर भोगों की वासना से प्रमाद करता आ रहा है और प्रमाद ही काल है । सर्वत्र सर्व अवस्थाओं में वह काल ही नाच रहा हैं, लेकिन कोई भी नहीं समझता । देखते, चलते-फिरते, सोते-जागते, खाते-पीते, श्वास लेते, कहते-सुनते हुए सबको काल ग्रस रहा है ।
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प्रमाद ही काम क्रोधादि रूप से सर्वत्र फैल रहा है । काम क्रोधादि शत्रु सबके मन में रहते हुए सभी पर प्रहार कर रहा है । आगे, पीछे, नीचे, ऊपर सब जगह काल ही साम्राज्य फैला रहा है । अतः भोग वासनाओं को त्यागकर काल से बचने के लिये काल रहित श्री राम का ही ध्यान करना चाहिये ।
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योगवासिष्ठ में लिखा है कि –
प्राणियों के मन में मोह रूपी वन में वासना की नदी शीघ्र गति से बह रही है, किसके शुभ-अशुभ ही दो किनारे हैं । वह बहती हुई जिस किनारे पर ले जाती है, वहीँ पर जीव पहुँच जाता है । सनत्सुजातीयोपनिषद् में कहा है कि हे क्षत्रिय ! जगत् के आरम्भ से ही प्रवृत्त हुए दोनों विचार सत्य हैं । तथापि जो विद्वानों को अभिमत है, वह मृत्यु तो मोह है, किन्तु मैं तो प्रमाद को ही मृत्यु कहता हूँ और सर्वदा अप्रमाद को अमृतत्व बतलाता हूँ ।
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इसकी व्याख्या करते हुए भगवान् शंकराचार्य कह रहे हैं कि – तो फिर मृत्यु क्या है? यह जो मोह अर्थात् अनात्मा में आत्मा का अभिमान है वह ही मृत्यु है, ऐसा किन्हीं विद्वानों का मत हैं । किन्तु मैं मृत्यु को ऐसा नहीं बतलाता, मैं तो प्रमाद को ही मृत्यु कहता हूँ । प्रमाद अपन स्वाभाविक ब्रह्मभाव से च्युत होने को कहते हैं । उस प्रमाद मिथ्याज्ञान के भी कारणभूत आत्मा का अनिश्चय अर्थात् आत्मा के अज्ञान को मैं मृत्यु यानी जनम-मरण आदि संपूर्ण अनर्थों का बीज बतलाता हूँ । अतः श्रुति भी कहती है कि “परमज्योति को प्राप्त होकर अपने स्वरूप से युक्त हो जाता है” ऐसा कहकर अपने स्वरूप में स्थित होने को ही मोक्ष रूप से प्रदर्शित करती है ।
(क्रमशः)

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