सोमवार, 17 जनवरी 2022

*सर्व गुण अर्थी का अंग १७८(४/७)*

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*काम क्रोध अहंकारा, भावै विषय विकारा ॥*
*काल मीच नहिं सूझै, आतमराम न बूझै ॥*
*समर्थ सिरजनहारा, दादू करै पुकारा ॥*
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श्री रज्जबवाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*सर्व गुण अर्थी का अंग १७८*
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रज्जब जीव जंत्री१ तन जंत्र२ है, पंच मोरने लाग ।
उलटे सूधे फेरिए, हरि मेलन को राग ॥४॥
जीव तंदूरा-बजानेवाला१ है और शरीर तंदूरा२ है । जैसे तंदूरे पर पांच तार होते हैं और उसको तेज या मंद करने के लिए उस पर पांच मोरने होते हैं । राग को मिलाने के लिए उन पाँचों मोरनों को उल्टा सीधा फेरा जाता है और वे पाँचों ही काम के हैं, वैसे ही जीव के शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियां हैं । हरि से मिलने के लिए उन्हें भी उल्टी सीधी जैसी आवश्यकता हो, फेरी जाती हैं । अत: वे सभी काम की हैं ।
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रज्जब त्रिगुण चलावैं गींद१ ज्यों, निज जन२ नट के हाथ ।
भामा३ भूमि परै नहीं, तो रीझै नरनाथ ॥५॥
जैसे नट खेल के समय हाथ में गेंद१ के समान तीन लट्टू चलाता है वे भूमि पर नहीं पड़ें तब तो देखने वाले नर प्रसन्न होते हैं, वैसे ही भगवान अपने भक्त२ के हाथ से तीनों गुणों के काम कराते हैं । यदि तीनों गुणों के कार्य करते हुये भी वह नारी३ पर नहीं पड़े तब भगवान् उस पर प्रसन्न होते हैं ।
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रोस रहम आवहिं सु काम, जे गुण हुं गालि१ सुमिरे सु राम ।
ज्यों कर द्वै दिशि खैंचे सु कमान, बल एकठ होइ मधि बान ॥६॥
दोनों हाथ धनुष को दोनों ओर खेंचते हैं किंतु दोनों का बल बाण में आकर इकठ्ठा हो जाता है । वैसे ही यदि अपने आसुर गुणों को नष्ट१ करके राम का स्मरण करे तब रोष और दया दोनों ही काम आ जाते हैं । आसुर गुणों को नष्ट करने में रोष दोनों की सेवा करने मे दया काम आ जाती है ।
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रज्जब राजस उपजै बंदगी१, सात्त्विक सेवा पोख२ ।
तामस तन मन मारिये, आतम पावहि मोख३ ॥७॥
रजोगुण से हृदय में सेवा१ करने की इच्छा उत्पन्न होती है । सतोगुण से उसकी पुष्टि२ होती है और तमो गुण से तन मन को मारा जाता है । तब जीवात्मा मोक्ष३ प्राप्त करता है, अत: तीनों गुण ही काम के हैं ।
(क्रमशः)

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