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*सो धी दाता पलक में, तिरे तिरावण जोग ।*
*दादू ऐसा परम गुरु, पाया किहीं संजोग ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*गुरु शिष्य की पद्य टीका*
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*इन्दव –*
*है गुरु भक्त सु न्यून गिनै जन,*
*पूज्य मनै गुरु क्यों समझावै ।*
*कैन१ करै परि नांहिं कहै नित,*
*रामत चालत वेगि बुलावै ॥*
*छूट गयो तन बारन देत न,*
*ल्यावत फेरि सु बात जनावैं ।*
*भाव लखै सत यूं जिय बोलत,*
*सेव करो जन वर्ष दिखावै ॥२०३॥*
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एक शिष्य अत्यन्त गुरु भक्त थे । संतों को गुरुजी से कम समझते थे किन्तु गुरु जी संतों को पूज्य मानते थे और गुरुजी के मन में यह चिन्ता रहती थी कि शिष्य को कैसे समझाऊं । जिससे मेरे से अधिक संतों को जाने और माने ।
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नित्य ही यह बात शिष्य को कहने१ की मन में इच्छा करते थे किन्तु कह नहीं सके थे । एक दिन शिष्य रामत को जाने लगे तब कहा – शीघ्र ही लौट आना । तुम को कुछ कहना है ।
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शिष्य लौटकर आया तो देखा, गुरुजी ने शरीर छोड़ दिया है । जलाने को लेजा रहे हैं । शिष्य ने जलाने नहीं दिया । सब को शपथ दिलाकर स्थान पर लौटा लाया । फिर हाथ जोड़कर प्रार्थना की । जो बात आप कहना चाहते थे, सो कृपा करके अब कहिये । शिष्य का सच्चा भाव देखकर भगवान् ने गुरुजी को जीवित कर दिया ।
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गुरुजी बोले – साधु सेवा करो, मुझ में और सन्तों में भेद मत समझो । किन्तु मेरे से अधिक समझो । फिर शिष्य की प्रार्थना से एक वर्ष गुरुजी जीवित रहे । शिष्य ने वर्ष भर में ऐसी साधु-सेवा करके दिखाई, जिसको देखकर गुरु अत्यन्त प्रसन्न हुये ।
(क्रमशः)
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