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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१५८)*
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१५८. हित उपदेश । त्रिताल
तो को केता कह्या मन मेरे ।
क्षण इक मांही जाइ अनेरे, प्राण उधारी ले रे ॥टेक॥
आगे है मन खरी विमासणि, लेखा मांगै दे रे ।
काहे सोवे नींद भरी रे, कृत विचारे तेरे ॥१॥
ते परि कीजे मन विचारे, राखै चरणहु नेरे ।
रती इक जीवन मोहि न सूझै, दादू चेत सवेरे ॥२॥
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भा०दी०- हे मनः ! मया बहुविधमुपदिष्टं परन्तु त्वया किञ्चिदपि न श्रुतम् । न चोपदेशानुसारं किञ्चिदपि शुभमाचरितम् । पुनरप्युच्यते मया, तत्सावधानं श्रृणु । सर्वेऽपि मायिकपदार्थाः क्षणभङ्गुराः मृगतृष्णाम्बुवद् वर्तन्ते । स्वप्नोपलम्भभावात्मा- सर्वथार्थशून्या: । अतस्तान् परित्यज्य हरिभजनेनात्मानं समुद्धर । अग्रे तव कर्मपरीक्षाऽपि भाविनी । लेखनमपि त्वया दातव्यं तदा त्वं किं वदिष्यसि । अतोऽधुनैव शुभानि कर्माणि त्वमाचर । मोहनिद्रायां किमर्थं स्वपिसि । पूर्वकृतकर्माणि पुन: पुनर्विमृश । येन ते शुभकर्मसु प्रवृत्तिरुदियात् । शुभाचरणेनैवेशावाप्ति: संभवति । नहि मायिकेषु प्रपञ्चेषु तात्विकं सुखमुपलभ्यते । अतो बुद्ध्या विचार्य सावधानेन भवितव्यम् ।
उक्तं हि योगवासिष्ठे- मुमुक्षु. प्र.
आर्यसंगमयुक्त्यादौ प्रज्ञावृद्धि नयेदलात् ।
ततो महापुरुषता महापुरुषलक्षणैः ॥१॥
यो यो येन गुणेनेह पुरुषः प्रविराजते ।
शिष्यते तं तमेवाशु तस्माद् बुद्धि विवर्धयेत् ॥२॥
महापुरुषता होषा शुभादिगुणशालिनी ।
सम्यग्ज्ञानं विना राम सिद्धिमेति न काञ्चन ॥३॥
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हे मन ! मैंने तेरे को बार-बार बहुत उपदेश दिया परन्तु तुमने एक भी नहीं सुना और तदनुसार एक भी शुभकर्म नहीं किया । ख़ैर फिर भी मैं तुझे कहता हूँ, तू सावधान होकर सुन ! जितने भी मायिक पदार्थ हैं, वे सब क्षणभंगुर हैं तथा मृगतृष्णिका के पानी की तरह इनकी स्थिति है । स्वप्न में प्रतीत होने वाले पदार्थों की तरह इनकी कान्ति है । ये सर्वथा अर्थशून्य हैं इनको त्यागकर हरिभजन से अपना उद्धार करले ।
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आगे तेरे कर्मों की परीक्षा होगी और हिसाब भी होगा । तब तू क्या करेगा? अतः अभी से शुभकर्मों का आचरण कर । मोहनिद्रा में क्यों सो रहा है ? किये हुए पूर्व कर्मों का विचार कर जिससे तेरी शुभकर्मों के प्रवृत्ति हो जाय । शुभकर्मों के करने से ही भगवान् की प्राप्ति होती है । मायिक प्रपंच में कहीं भी वास्तविक सुख नहीं है । अतः बुद्धि से विचार कर सावधान हो जा ।
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योगवासिष्ठ में लिखा है कि –
महापुरुष ही ज्ञान दे सकते हैं । उनके संग से उनके द्वारा उपदिष्ट ज्ञान को प्राप्त करके सदाचार का पालन करना चाहिये और बुद्धि को बढ़ाना चाहिये । उसके बाद साधक में भी महापुरुषों के लक्षणों के आ जाने से महापुरुष हो जाता है । यद्यपि सारे गुण एक पुरुष में नहीं आ सकते, फिर भी जिस गुण से पुरुष युक्त होता है तो उसमें दूसरे गुण भी आ जाते हैं । अतः अपने ज्ञान को बढ़ाना चाहिये । जिसमें शमदम आदि गुण आ जाते हैं, वह ही महापुरुष कहलाता है । हे राम ! सम्यक् ज्ञान के बिना कोई सिद्धि प्राप्त नहीं होती ।
(क्रमशः)
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