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*जहाँ सुरति तहँ जीव है, जीवन मरण जिस ठौर ।*
*विष अमृत तहँ राखिये, दादू नाहीं और ॥*
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श्री रज्जबवाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*सर्व गुण अर्थी का अंग १७८*
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लागी अक्षर१ के अरथ, लग मात्रा सु अभंग ।
तो रज्जब सब काम के, जे गुण निर्गुण संग ॥८॥
जो अक्षर१ के लग मात्रा लग जाती है वह नष्ट नहीं होती, अक्षर के साथ ही बोली जाती है । वैसे ही जो गुण, निर्गुण ब्रह्म१ की प्राप्ति में सहायक होते हैं वे सभी काम के हैं और परम्परा से सभी सहायक हो जाते हैं जैसे इन्द्रियादि को जीतने के लिये तमोगुण, तमोगुण को जीतने के लिये रजोगुण, रजोगुण को जीतने के लिये सतोगुण काम में आता है । ऐसे ही सब काम आ जाते हैं ।
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अठारह भार अमृत स्रवै, मधुरिख ल्यावहिं शोध ।
तेसे शिश्न सुधा मई, रज्जब पैठें बोध ॥९॥
अठारह भार वनस्पति शहदरूप अमृत देती है । उसे मधुमक्खी खोजकर लाती है उससे लोक लाभ उठाते हैं वैसे ही संत ज्ञान देते हैं । उसे जिज्ञासु की बुद्धि खोजकर ग्रहण करती है तब उसकी शिश्नेन्द्रिय भी अमृत मय बन जाती है अर्थात काम नष्ट हो जाता है फिर उसके ज्ञान से लोक लाभ उठाते हैं ।
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रज्जब ज्ञाता१ गारुड़ी, इन्द्री अहि२ वश जास ।
देखो जग जीवन जड़ी, दुष्ट दशन३ भये नाश ॥१०॥
सर्प२ गरुड़ मंत्र जानने वाले गारुड़ी के वश में रहता है । देखो, सर्प काल रूप था वही दाँत३ तोड़ने के पिछे जगत में जीवन जड़ी रूप हो जाता है । उसका प्रदर्शन करके निर्वाह करते हैं । वैसे ही इन्द्रियाँ ज्ञानी१ के वश में रहती है । उसकी दुष्टता नाश हो जानेके पीछे, वे ही प्रभु प्राप्ति में सहायक होने के कारण जगत में जीवन जड़ी रूप हो जाता है ।
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रज्जब अहि१ इन्द्री निर्विष करै, दुष्ट दशन२ कर भंग ।
वेत्ता३ बादी४ बालक हु, विघ्न न व्याल५ हु संग ॥११॥
जो सर्प१ के दुष्ट दाँतों२ को तोड़ देता है, उस बाजीगर४ के बालक को सर्प५ के संग से कोई विघ्न नहीं होता । वैसे ही जो ज्ञानी३ इन्द्रियों की दुष्टता को नष्ट कर देता है, तब उसके शिष्यों को इन्द्रियों से कोई विघ्न नहीं होता ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित सर्व गुण अर्थी का अंग १७८ समाप्तः ॥सा. ५२३९॥
(क्रमशः)
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