शनिवार, 22 जनवरी 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१५९

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१५९)*
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*१५९. (गुजराती) । त्रिताल*
*मन वाहला रे, कछू विचारी खेल, पड़सी रे गढ़ भेल ॥टेक॥*
*बहु भाँति दुख देइगा वाहला, ज्यों तिल माँ लीजे तेल ।*
*करणी ताहरी सोधसी रे, होसी रे सिर हेल ॥१॥*
*अब ही तैं कर लीजिये रे वाहला, सांई सेती मेल ।*
*दादू संग न छाड़ि पीव का, पाई है गुण की बेल ॥२॥*
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भा०दी०- हे प्रियतम ! मे मनः त्वामहं संबोधयामि । यत्त्वं शुभाशुभे विचार्य शुभान्येव कर्माण्याचर, नत्वशुभानि निषिद्धानि । अन्यथा त्वां तानि निषिद्धानि कर्माणि कलुषीकरिष्यन्ति । त्वयि कामादिचौरा: प्रविश्य त्वां नाशयिष्यन्ति । कर्मफलदानकाले तवाचरितकर्मणां गणनाऽपि भविष्यति । तदाऽवश्यं दण्डं प्राप्यसि । तिलपीडननिश्च्योतनयंत्रे तिलानां निश्च्योतनक्त्वमपि कष्टैः पीड्यसे । दुर्लभमिदं शरीरं प्रभुभक्त्यै त्वया प्राप्त न तु विषयभोगावाप्तये । अतोऽधुनैव सर्वदुःखभञ्जक श्रीराम भज । तद्विषयाणां संग त्यज ।
उक्तं हि श्रीमद्भागवते-
नूनं प्रमत्तः कुरुते विकर्म यदिन्द्रियप्रीतय आपृणोति ।
न साथु मन्ये यत आत्मनोऽयमसन्नपि क्लेशद आस देहः ॥
पराभवस्तावदवबोधजातो यावन्न जिज्ञासत आत्मतत्वम् ।
यावत्क्रिया तावदिदं मनो वै कर्मात्मकं येन शरीरबन्धः ॥
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हे मन ! मैं तुझे समझता हूँ कि शुभ-अशुभ कर्मों को विचार कर शुभकर्मों को ही कर । जो शास्त्रनिषिद्ध अशुभकर्म हैं, उनको मत कर अन्यथा उन कर्मों से तेरा अन्तःकरण मैला हो जायगा । देख तो सही, तेरे अन्तःकरण में कामादि चोर प्रविष्ट होकर तेरे ज्ञान को नष्ट कर रहे हैं । 
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वे चोर तेरा विनाश का डालेंगे और जब कर्म फल देने का समय आयेगा तब तेरे कर्मों की गणना की जायगी, उस समय अवश्य दण्ड मिलेगा । जैसे घाणी में तिल पेला जाता है, वैसे ही तू भी कष्टों से पीड़ित हो जायेगा । यह दुर्लभ शरीर प्रभु प्राप्ति के लिये मिला है, न कि विषय भोग के लिये । अतः अभी से दुःखभंजक राम का भजन कर और विषयों का संग छोड़ दे ।
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श्रीमद्भागवत में कहा है कि –
मनुष्य अवश्य ही प्रमादवश कुकर्म करने लगता है । उसकी यह प्रवृत्ति इन्द्रियों को तृप्त करने के लिये ही है । मैं इसे अच्छा नहीं मानता क्योंकि इसके कारण आत्मा को यह मिथ्या और दुःख दायक शरीर प्राप्त होता है । जब तक जीव को आत्म तत्व की जिज्ञासा नहीं होती, तब तक अज्ञानवश देहादिक के द्वारा उसका स्वरूप छिपा रहता है । जब तक यह लौकिक वैदिक कर्मों में फंसा रहता है, तब तक मन में कर्म की वासनाएँ भी बनी रहती हैं और उनसे देहबन्धन भी होता रहता है ।
(क्रमशः)

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