शनिवार, 22 जनवरी 2022

*साँख्य योग मत का अंग १७९(१-२)*

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*परआत्म सो आत्मा, ज्यों जल उदक समान ।*
*तन मन पाणी लौंण ज्यों, पावै पद निर्वाण ॥*
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श्री रज्जबवाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*साँख्य योग मत का अंग १७९*
इस अंग में ज्ञान की परीक्षा संबंधी विचार कर रहे हैं ~
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जन रज्जब यहु सांख्य मत, जीव सीव१ न विभाग२ ।
जैसे माला सूत की, सोइ मणिया सोइ ताग ॥१॥
प्राचीन काल में वेदाँत को भी साँख्य कहते थे । अत: वेदाँत रूप साँख्य का ही सार मत बता रहे हैं । साँख्य योग का यही सार सिद्धान्त है - उसमें जीव ब्रह्म१ का भेद२ नहीं है । जैसे सूत की माला होती है । उसमें सूत की ही मणिये होते हैं और सूत का ही धागा होता है । वैसे ही जीव भी चेतन रूप है और ब्रह्म ही चेतन रूप है । दोनों में कोई भेद नहीं है ।
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साँख्य योग तौहीद में, एकै जाण्या जाये ।
ज्यों रज्जब इक टंग अंग१, दूजा नांही पाय ॥२॥
साँख्य योग और मुसलमानों के तौहिद(अभेदवाद) से एक अद्वैत ब्रह्म ही सत्य जानने में आता है । जैसे एक पैर वाले शरीर१ के दूसरा पैर नहीं होता वैसे ही अद्वैत ब्रह्म में कोई भेद नहीं होता ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित साँख्य योग मत का अंग १७९ समाप्तः ॥सा. ५२४१॥
(क्रमशः)

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