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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२२. बेसास कौ अंग ~ २५/२८*
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करै न सेवा बंदगी, धरै न निरगुण ध्यांन ।
रहै न मन वेसास गहि, जगजीवन तजि आंन ॥२५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिनके मन में निर्गुण ब्रह्म का ध्यान नहीं है और जो प्रभु की सेवा पूजा नहीं करते । जिन्हें प्रभु पर भरोसा नहीं है ऐसे जीवों को त्यागना ही श्रेष्ठ है ।
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जगजीवन कैसैं तिरै, अथग३ अतीरस४ सार५ ।
तुम्हरौ जे त्रिभुवन धणी, तो जन उतरै पार ॥२६॥
{३. अथग=अतिग(अगाध)} (४. अतीरस=अत्यधिक जल वाला)
(५. सार=सागर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वे जीव कैसे पार पायेंगे जिनकी थाह नहीं है । जो जलयुक्त है, वे कैसे सागर पार करेंगे । अगर त्रैलोक्य स्वामी ही मालिक बन कृपा करें तो जन पार उतर पाते हैं ।
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जगजीवन कोइ कछु कहौ, कहे कहे क्या होइ ।
जे हरि सांई पाधरा६, भला दिवस गिणि सोइ ॥२७॥
(६. पाधरा=अनुकूल)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि चाहे कोइ कुछ भी कहो कहने से क्या होता है ? जिसके प्रति रामजी सदय है, वह अपने दिवस श्रेष्ठ ही जाने ।
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परमेसुर का नांम कौ, बड़ौ आसिरौ एक ।
अड़चन७ आवै न साध कूं, जे जुग जांहि अनेक ॥२८॥
(७. अडचन=विघ्न)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि परमेश्वर के नाम का बड़ा सहारा है संत जनों को इस नाम से उन्हें कोइ अड़चन नहीं आती उनका कार्य निर्बाध चलता रहता है । चाहे अनेक युग बीत जाये ।
(क्रमशः)
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