सोमवार, 21 फ़रवरी 2022

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*कहै लखै सो मानवी, सैन लखै सो साध ।*
*मन लखै सो देवता, दादू अगम अगाध ॥*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- *॥गुरु भक्ति॥*
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*॥ गुरु भक्त ही गुरु के भाव को समझ सके ॥*
सुगुरु भक्त गुरु भाव को, समझ सके भल रीति ।
भेजी भक्ति रत्नावली, विष्णु पुरी सह रीति ॥२३१॥
श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु के शिष्य विष्णुपुरीजी काशी रहा करते थे । कुछ साधुओं ने महाप्रभु से कहा - 'विष्णुपुरी मुक्ति के लिये काशी में ठहर रहे हैं ।' महाप्रभु बोले - 'नहीं, उन्हें न मुक्ति से, न किसी देवता से और न काशी से ही कुछ प्रयोजन है । श्री कृष्ण चिन्तन को छोड़ कर उनकी चित्त वृति कहीं भी नहीं जाती । केवल सतसंग के लिये ही काशी में ठहरे हुये हैं । 
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फिर भी जब लोगों ने नहीं माना तो महाप्रभु ने विष्णुपुरीजी को एक रत्नमाला भेजने के लिये लिखा । वे गुरु भक्त थे महा प्रभु के हृदय की बात जान गये और भागवत् रूप समुद्र से पांच सौ श्लोक रूप रत्न चुन कर के तथा 'भक्ति रत्नावलि' नाम रख करके भेज दिया । उसे जब देखा तो सबको निश्चय होगया कि वे अनन्य भक्त तथा गुरु निष्ठ हैं । इससे सूचित होता है कि गुरुभक्त ही गुरु के भाव को भलि भांति जान सकता है ।

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