रविवार, 27 फ़रवरी 2022

ईश्वर का मातृभाव । आद्याशक्ति

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*दादू मैं नाहीं तब एक है, मैं आई तब दोइ ।*
*मैं तैं पड़दा मिट गया, तब ज्यूं था त्यूं ही होइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(९)पूर्ण ज्ञान के बाद अभेद । ईश्वर का मातृभाव । आद्याशक्ति
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भोजन के बाद पान खाते हुए सब लोग घर लौट रहे हैं । श्रीरामकृष्ण लौटने के पहले विजय से एकान्त में बैठकर बातचीत कर रहे हैं । वहाँ मास्टर भी हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - तुमने उनसे 'माँ माँ' कहकर प्रार्थना की थी । यह बहुत अच्छा है । कहावत है, माँ की चाह बाप से अधिक होती है । माँ पर अपना बस है, बाप पर नहीं । त्रैलोक्य की माँ की जमींदारी से गाड़ियों में रुपया लदकर आता था । हाथ में लाठियाँ लिये कितने ही लाल पगड़ीवाले सिपाही साथ रहते थे । त्रैलोक्य रास्ते में आदमियों को लिये हुए खड़ा रहता था, जबरन सब रुपया ले लेता था । माँ के धन पर अपना पूरा जोर है । कहते हैं, लड़के के नाम पर माँ का दावा भी नहीं होता ।
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विजय - ब्रह्म अगर माँ हैं, तो वे साकार हैं या निराकार ?
श्रीरामकृष्ण - जो ब्रह्म है, वही काली भी हैं । जब निष्क्रिय हैं, तब उन्हें ब्रह्म कहते हैं । जब सृष्टि, स्थिति, प्रलय, यह सब काम करते हैं, तब उन्हें शक्ति कहते हैं । स्थिर जल से ब्रह्म की उपमा हो सकती है । पानी जब हिलता-डुलता है, तब वह शक्ति की - काली की उपमा है ।
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काली वे हैं, जो महाकाल के साथ रमण करती हैं । काली साकार भी हैं और निराकार भी । तुम लोग अगर निराकार पर विश्वास करते हो, तो काली का उसी रूप में ध्यान करो । एक को मजबूती से पकड़कर उनकी चिन्ता करने से वे ही समझा देती हैं कि वे कैसी हैं ।
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श्यामपुकुर पहुँचने पर तेलीपाड़ा भी जान लोगे । तब तुम समझ जाओगे कि ईश्वर है (अस्तिमात्रम्) । यही नहीं, बल्कि वे तुम्हारे पास आकर तुमसे बोलेंगे, बातचीत करेंगे - जैसे मैं तुमसे बोल रहा हूँ । विश्वास करो, सब हो जायगा ।
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एक बात और है, तुम्हें अगर निराकार पर विश्वास हो, तो उसी विश्वास को दृढ़ करो । परन्तु कट्टर मत बनो । उनके सम्बन्ध में जोर देकर ऐसा न कहना कि वे यह हो सकते हैं और यह नहीं । कहो - 'मेरा विश्वास है, वे निराकार हैं, वे और क्या क्या हो सकते हैं, यह तो वे ही जानें ।
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मैं नहीं जानता, न मेरी समझ में यह बात आती है ।’ आदमी की छटाक भर बुद्धि से क्या ईश्वर की बात समझी जा सकती है ? सेर भर के लोटे में क्या चार सेर दूध समाता है ? वे अगर कृपा करके कभी दर्शन दें और समझायें तो समझ में आता है, नहीं तो नहीं ।
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"जो ब्रह्म है, वही शक्ति है, वही माँ हैं । रामप्रसाद कहते हैं, मैं जिस सत्य की तलाश कर रहा हूँ वे ब्रह्म है, उन्हें ही मैं माँ कहकर पुकारता हूँ । इसी बात को रामप्रसाद ने एक जगह और दुहराया है, काली को ब्रह्म जानकर मैंने धर्म और अधर्म दोनों का त्याग कर दिया है ।
"अधर्म है असत् कर्म । धर्म है वैधी कर्म - इतना दान करना होगा इतने ब्राह्मणों को खिलाना है, यह सब धर्म है ।”
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विजय - धर्म और अधर्म का त्याग करने पर बाकी क्या रहता है ?
श्रीरामकृष्ण - शुद्धा भक्ति । मैंने माँ से कहा था, 'माँ यह लो अपना धर्म, यह लो अपना अधर्म, मुझे शुद्धा भक्ति दो । यह लो अपना पुण्य और यह लो अपना पाप, मुझे शुद्धा भक्ति दो । यह लो अपना ज्ञान और यह लो अपना अज्ञान, मुझे शुद्धा भक्ति दो ।' देखो, ज्ञान भी मैंने नहीं चाहा । मैंने लोकसम्मान भी नहीं चाहा । धर्माधर्म का त्याग करने पर शुद्धा भक्ति - अमला, निष्काम, अहेतुकी भक्ति - बाकी रहती है ।
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ब्राह्म भक्त - उनमें और उनकी शक्ति में क्या भेद है ?
श्रीरामकृष्ण - पूर्ण ज्ञान के बाद दोनों अभेद हैं । जैसे मणि की ज्योति और मणि अभेद हैं, मणि की ज्योति की चिन्ता करने से ही मणि की चिन्ता की जाती है । दूध और दूध की धवलता जैसे अभेद है, एक को सोचिये तो दूसरे को भी सोचना पड़ता है; परन्तु यह अभेद-ज्ञान पूर्ण ज्ञान के बिना हुए नहीं होता ।
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पूर्ण ज्ञान से समाधि होती है । तब मनुष्य चौबीस तत्वों को पार कर जाता है इसलिए अहंतत्त्व नहीं रह जाता । समाधि में कैसा अनुभव होता है, यह कहा नहीं जा सकता । उतरकर कुछ आभास मिलता है, वही कहा जा सकता है । समाधि छूटने के बाद जब मैं ‘ॐ ॐ’ कहता हूँ, तब समझो कि मैं कम से कम सौ हाथ नीचे उतर आया हूँ । ब्रह्म वेद और विधियों से परे हैं, वे वाणी में नहीं आते । वहाँ ‘मैं तुम’ नहीं हैं ।
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"जब तक 'मैं' और 'तुम' ये भाव हैं, तब 'मैं प्रार्थना कर रहा हूँ या ध्यान कर रहा हूँ’ यह भी ज्ञान है और 'तुम(ईश्वर) प्रार्थना सुनते हो यह भी ज्ञान है; और उस समय ईश्वर के व्यक्तित्व का भी बोध है । तुम प्रभु हो, मैं दास, तुम पूर्ण हो, मैं अंश; तुम माँ हो, मैं पुत्र, यह बोध भी रहेगा । यह भेद-बोध है - मैं एक अलग हूँ और तुम अलग ।
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यह बोध वे ही कराते हैं; इसीलिए 'स्त्री' और 'पुरुष', 'उजाले' और 'अँधेरे' का ज्ञान है । जब तक यह भेद-बोध है, तब तक शक्ति को मानना पड़ेगा । उन्होंने हमारे भीतर, 'मैं' रख दिया है । चाहे हजार विचार करो, परन्तु 'मैं' नहीं दूर होता । जब तक 'मैं' है तब तक ईश्वर साकार रूप में ही मिलते हैं ।
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“इसलिए जब तक 'मैं' है, भेद-बुद्धि है, तब तक ब्रह्म निर्गुण है, यह कहने का अधिकार नहीं; तब तक सगुण ब्रह्म ही मानना होगा । इसी सगुण ब्रह्म को वेदों, पुराणों और तन्त्रों में काली या आद्याशक्ति कहा गया है ।”
(क्रमशः)

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