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*अरस परस मिल खेलिये, तब सुख आनंद होइ ।*
*तन मन मंगल चहुँ दिशि भये, दादू देखे सोइ ॥*
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टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*खेल का अंग १८२/मुर प्रसंगी का अंग १८३*
इस अंग में संसार रूप खेल का परिचय दे रहे हैं ~
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रज्जब अरवाह्यों१ रमण रुचि, जोय२ जुगल३ जग मेल ।
प्राण४ पिंड ब्रह्माण्ड मधि, खलक५ सु खालिक६ खेल ॥१॥
जगत के प्राणियों४ के शरीर में और ब्रह्माण्ड में जीवात्माओं१ की दो३ मिलकर रमण की जो२ रुचि है, वही इस संसार५ में सृष्टिकर्त्ता प्रभु६ का खेल है ।
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खेल हि मेला खलक१ सौ, खेल हि खलिक२ मेल ।
रज्जब रीझ्या३ देख कर, विविध भांति का खेल ॥२॥
जगत१ के प्राणियों से मिलने भी खेल है और प्रभु२ से मिलना भी खेल है अत: नाना प्रकार का खेल देखकर उस खेल रचने वाले प्रभु के हम अनुरक्त३ हुये हैं ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित खेल का अंग १८२ समाप्तः ॥सा. ५२६१॥
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*पारब्रह्म कह्या प्राण सौं, प्राण कह्या घट सोइ ।*
*दादू घट सब सौं कह्या, विष अमृत गुण दोइ ॥*
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टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*मुर प्रसंगी का अंग १८३*
इस अंग में मुर(तीन) प्रसंग एक पद्य में बता रहे हैं ~
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रज्जब द्वे द्वन्द्वर१ मिलत, उपजै विघ्न रु वाद ।
नर नारी संयोग सुख, वक्ता श्रौतै२ स्वाद३ ॥१॥
जब दो झगड़ालु१ मिलते हैं तब विवाद द्वारा उत्पन्न होता है । नर नारी का संयोग होता है तब विषय सुख मिलता है । वक्ता श्रोता२ मिलते हैं तब हरि कथा का आनन्द३ मिलता है ।
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रज्जब राज हुं ॠद्धि१ बल, सिद्धों के बल सिद्धि ।
साधू के बल सांइयाँ, ये ही तेज त्रिविद्धि२ ॥२॥
राजाओं का बल ऐश्वर्य१ है । सिद्धों का बल सिद्धि है । संतों का बल परमात्मा है । ये ही तीन-प्रकार२ का तेज रूप बल है ।
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रज्जब जत में जोग बस, धर्म दया अस्थान ।
नाम ठाम निर्गुण रहे, मन बच कर्म करि मान ॥३॥
ब्रह्मचर्य सब योग का स्थान है । दया सब धर्म का स्थान है । नाम रूप स्थान निर्गुण ब्रह्म का है यह बात मन वचन कर्म से सत्य ही मानो ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित मुर प्रसंगी का अंग १८३ समाप्तः ॥सा. ५२६४॥
(क्रमशः)
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