सोमवार, 21 फ़रवरी 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१६१

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
https://www.facebook.com/DADUVANI
भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१६१)*
===============
*१६१. भ्रम विध्वंसन । उदीक्षण ताल*
*निरंजन अंजन कीन्हा रे, सब आतम लीन्हा रे ॥टेक॥*
*अंजन माया अंजन काया, अंजन छाया रे ।*
*अंजन राते अंजन माते, अंजन पाया रे ॥१॥*
*अंजन मेरा अंजन तेरा, अंजन मेला रे ।*
*अंजन लीया अंजन दीया, अंजन खेला रे ॥२॥*
*अंजन देवा अंजन सेवा, अंजन पूजा रे ।*
*अंजन ज्ञाना अंजन ध्याना, अंजन दूजा रे ॥३॥*
*अंजन वक्ता अंजन श्रोता, अंजन भावै रे ।*
*अंजन राम निरंजन कीन्हा, दादू गावै रे ॥४॥*
.
भादी०- अत्र अंजनशब्देन माया गृह्यते । सांसारिका: पुरुषा मायामेव निरञ्जनं ब्रह्म मत्वा, तस्यामेव लीयन्ते । धनं शरीरं स्त्रीपुत्रादिकं सर्व मायाकार्य, तेषामासक्तिरपि माया-कार्यम् । अत: सर्वेऽपि जना मायाऽनुरक्ता मायामेव लभन्ते । मायिकपदार्थेष्वेव ममत्वभावं कुर्वन्ति । तदर्थमेव परस्पर मिलन्ति । मायिकपदार्थानामादानं प्रदानं च भवति । तेष्वेव सततं क्रीडन्ति । देवता अपि मायिका मायिकपदाथैरेवनिर्मिततत्वात् मायिकपदाथैरव ते पूज्यन्ते । तेषां ज्ञानध्यानमपि मायिकविषयकमेव । वक्ताऽपि मायिकविषयकज्ञानमेवोपदिशति । श्रोताऽपि तद्विषयक-ज्ञानमेव श्रृणोति । यतो हि श्रवणानन्तरं तेषां मायिकपदार्थेषु प्रवृत्तिदर्शनात् । अतस्ते मायिकप्रिया भवन्ति । एवं सर्वोऽपि व्यवहारो मायामादायैव भवति । मायामेव निरञ्जनं रामं मत्वा तद्यशोगानं कुर्वन्ति । न तु कोऽपि निरञ्जन ब्रह्म ध्यायति । तद्ध्यानस्य दुरूहत्वात् ।
उक्तं हि सर्वोपनिषत्संग्रहे-
द्वेवाव ब्रह्मणो रूपे मूर्त चैवामूर्तञ्च ।
सगुणं निर्गुणञ्चैव द्विधा ध्यान प्रकीर्तितम् ।
सगुणं व्यक्तियुक्तं स्यादव्यक्तं निर्गुणं भवेत् ॥
.
अंजन शब्द का माया अर्थ है । सांसारिक पुरुष माया को ही निरन्जन मानकर उसी में लीन रहते हैं । धन, शरीर, स्त्री, पुरुष आदि सब माया के ही कार्य हैं । अतः सभी प्राणी माया से ही अनुराग करते हैं । इन सबकी आसक्ति भी माया का कार्य है और माया ही सांसारिक पुरुषों को प्राप्तव्य है । मायिक पदार्थों में ही ‘यह मेरा, यह तेरा’ ऐसा भाव करते हैं । उनकी प्राप्ति के लिये ही परस्पर में मिलते रहते हैं ।
.
आदान-प्रदान भी मायिक पदार्थों का करते हैं, उनसे ही सदा खेलते रहते हैं । देवता भी मायिक पदार्थों से बने हुए हैं, अतः वे देवता भी मायिक ही हैं । उनका पूजन भी मायिक पदार्थों से किया जाता है । इनका ज्ञान-ध्यान भी मायिक ही कहलाता है, क्योंकि ब्रह्म से जो भिन्न हैं, वे सब मायिक ही है । वक्ता भी मायिक पदार्थों का ही उपदेश करता है, और श्रोता उसको ही सुनता है । कहने-सुनने वालों की प्रवृत्ति मायिक पदार्थों में ही देखी जाती है ।
.
सांसारिक पुरुषों को मायिक पदार्थ ही अच्छे लगता हैं, इस तरह संपूर्ण व्यवहार मायिक पदार्थों को लेकर ही हो रहा है । माया को ही निरन्जन राम मानकर उसका यशोगान करते हैं । निरन्जन राम का तो कोई ध्यान नहीं करता क्योंकि उसका ध्यान कठिन है । सर्वोपनिषत्संग्रह में लिखा है कि – ब्रह्म के दो रूप है । एक मूर्त दूसरा अमूर्त । निर्गुण सगुण भेद से ध्यान भी दो प्रकार का है । व्यक्ति विशेष का ध्यान सगुण होता है और अव्यक्त का ध्यान निर्गुण ध्यान कहलाता है ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें