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*सब चतुराई देखिए, जे कुछ कीजै आन ।*
*दादू आपा सौंपि सब, पीव को लेहु पिछान ॥*
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टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*व्यभिचार वरदाई१ का अंग १८०*
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विमुख१ भये संसार तैं, साँचा सांई जानि ।
चरण लगाओ बापजी, कीजे दोय२ न हानि ॥५॥
हे सत्य स्वरूप परमात्मा ! आपको पहचान कर हम संसार से विरक्त१ हो गये हैं । बापजी ! अब आप हमें अपने सत्य स्वरूप चरण में लीन कीजिये । आप और हम को भिन्न२ भिन्न रख कर हमारी महान् हानि न कीजिये ।
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रज्जब नारी आतमा, पिंड पुरुष भरतार ।
उधरी१ माधव२ मित्र मिल, जबै३ किया व्यभिचार ॥६॥
आत्मा रूप नारी ने जब३ शरीर रूप भर्ता पुरुष को त्याग कर लक्ष्मीपति२ प्रभु रूप मित्र से मिलना रूप व्यभिचार किया, तभी उसका संसार से उद्धार१ हुआ है ।
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विषय बंदि१ वसुधा सबै, नर नारी घट२ दोय ।
रज्जब रजा३ रजानिकर४, कोई इक मुक्ता होय ॥७॥
सभी पृथ्वी के नर-नारी दोनों शरीर२ ही विषय रूप जेल में बंद१ है । "सृष्टि बढाओ" इस प्रभु की आज्ञा३ को मिटा४ कर कोई बिरला ही विषय जेल से मुक्त होता है ।
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गोली१ गात२ न खाई भाई, बागा३ वपु पहरा पुनि नांहि ।
रज्जब रजा४ रजानी५ प्रभु की, पंच रात जिये जप मांहि ॥८॥
हे भाई ! जिसने शरीर२ की रक्षा के लिये औषधि की गुटिका१ नहीं खाई विवाह के लिये शरीर पर जामा३ नहीं पहना और ईश्वर की सृष्टि बढाओ इस आज्ञा४ को मिटा५ कर हरि नाम जप में तल्लीन रहते हुये जगत् में पंच दिन अर्थात कुछ दिन जीवन धारण किया वही धन्य है ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित व्यभिचार वरदाई का अंग १८० समाप्तः ॥सा. ५२४९॥
(क्रमशः)
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