बुधवार, 23 फ़रवरी 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१६२

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
https://www.facebook.com/DADUVANI
भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१६२)*
===============
*१६२. निज वचन । महिमा चौताल ध्रुपद में*
*ऐन बैन चैन होवै, सुणतां सुख लागै रे ।*
*तीन गुण त्रिविधि तिमिर, भरम करम भागै रे ॥टेक॥*
*होइ प्रकास अति उजास, परम तत्व सूझै ।*
*परम सार निर्विकार, विरला कोई बूझै ॥१॥*
*परम थान सुख निधान, परम शून्य खेलै ।*
*सहज भाइ सुख समाइ, जीव ब्रह्म मेलै ॥२॥*
*अगम निगम होइ सुगम, दुस्तर तिर आवै ।*
*आदि पुरुष दरस परस, दादू सो पावै ॥३॥*
.
भा०दी०- भगवद्वाक्यस्य सत्पुरुषवाक्यानाञ्च माहात्म्यं प्रतिपाद्यते । तयोर्वाक्यानि परमानन्दप्रदानि भवन्ति । तेषां श्रवणमात्रेणैव परमसुखानुभूतिर्जायते । सद्वचनश्रवणेन त्रिगुणजन्यदोषा नश्यन्ति । मूलातूलालेशादिभेदेन त्रिविधाऽप्यविद्याऽपगच्छति । पंचविधो भ्रमः सकाम- कर्मवासना च हृदयान्निवर्तेते । हृदयञ्च ज्ञानेन प्रकाशते । सद्वचनैः परमतत्वमपि स्वयमेव साधकहृदये स्फुरति । केचन ज्ञानिन एव संसारातीतं निर्विकारं ब्रह्म विदन्ति ।
ब्रह्मैव सर्वोत्कृष्टं परमानन्दनिधानमितिवदन्तः सन्तो ब्रह्मण्येवाद्वैतानन्दरूपां वृत्तिमनुभवन्ति । जीवब्रह्मणोरैक्यज्ञाने सति साधकोऽनायासेनैव ब्रह्मानन्दसागरे निमज्जति वेदादिभिरष्यनिर्वचनीयं ब्रह्म सद्वचनैः सुलभं भवति । दुस्तरं संसारसागरं तीा साधकोऽद्वैतभावं प्राप्नोति । य: साधक: सद्वचनं भगवद्वाक्यञ्च विर्मशति स ब्रह्मसाक्षात्कार विधाय तस्मिन्नेव ब्रह्मणि लीयते ।
उक्तं हि श्रीबल्लभाचार्य -
ब्रह्मसंबन्धकरणात् सर्वेषां देहजीवयोः ।
सर्वदोषनिवृत्तिर्हि दोषाः पञ्चविधाः स्मृताः ॥
सहजा देशकालोत्था लोकवेदनिरूपिताः ।
संयोगजा: स्पर्शजाश्च न मन्तव्या कथञ्चन ।
अन्यथा सर्वदोषाणां न निवृत्तिः कथञ्चन ॥
.
श्री भगवान् तथा सन्तों के वचनों की महिमा बतला रहे हैं । भगवद्वाक्य तथा सन्तवचन परमानन्द के देने वाले होते हैं । उनके वचनों को सुनने मात्र से ही परम सुख की अनुभूति होने लगती है । उनके वचनों से त्रिगुण-जन्य दोषों की तथा तूला मूला लेशा रूप त्रिविध अविद्या की निवृत्ति हो जाती हैं ।
.
पांच प्रकार का भ्रम, सकाम कर्मों के करने की वासना, हृदय से निकल जाती है, सद्वचनों से परमतत्व जो अपना स्वरूप है, वह भी स्वयं ही प्रकशित होने लगता है । उस ब्रह्म को, जो निर्विकार तथा संसार का सारभूत है, कुछ ही ज्ञानी लोग जानते हैं । उस ब्रह्म के प्राप्ति का स्थान सर्वोत्कृष्ट तथा परमानन्द का देने वाला है, ऐसा कहते हुए ब्रह्म में अभेद बुद्धि से अद्वैतानन्द का खेल खेलते रहते हैं ।
.
जीव ब्रह्म का ऐक्य ज्ञान होने पर साधक ब्रह्मानन्द में डूब जाता है । सन्त वचनों से ब्रह्म, जो वेदों से भी अगम्य माना जाता है, वह सुगम हो जाता है । सन्त वचनों से जो दुस्तर संसार सागर है, उसको पार करके अद्वैत भाव में प्रविष्ट हो जाता है । जो कोई भी साधक संत वचनों को तथा भगवद् वाक्यों का विचार करता है वह ब्रह्म का साक्षात्कार करके निर्दोष होता हुआ ब्रह्म में लीन हो जाता है ।
.
श्रीवल्लभाचार्यजी लिख रहे हैं कि –
ब्रह्म से जीव का सम्बन्ध होने पर जीव और देह सम्बन्धी सब दोष दूर हो जाते हैं । दोष पांच प्रकार के होते हैं । सहज, देशज, कालज, संयोगज, और स्पर्शज । सहज दोष वे हैं जो जीव के साथ पैदा होते हैं । देशज, देश से, कालज काल के अनुसार पैदा होते हैं । संयोगज संयोग से और स्पर्शज दोष स्पर्श से प्रकट होते हैं । ब्रह्म से सम्बन्ध हुए बिना इन सब दोषों की निवृत्ति नहीं होती ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें