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*ज्यों रचिया त्यों होइगा, काहे को सिर लेह ।*
*साहिब ऊपरि राखिये, देख तमाशा येह ॥*
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टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*प्रस्ताविक का अंग १८१*
इस अंग में यह बता रहे हैं कि - समयानुसार ही सब शोभा देते हैं ~
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रज्जब समय विष अमी१, कुसमय अमृत विष्ष२ ।
यथा मधुरै३ मक्षिका, मिश्री मरता पिष्ष४ ॥१॥
समय पर तो विष भी अमृत१ हो जाता है और कुसमय अमृत भी विष२ बन जाता है । जैसे मक्खी का जीवन भी मधुर३ मिश्री है और देखो४ मिश्री बनाते वही मीठा मृत्यु हो जाता है । चासनी में पड़कर मक्खी मर जाती है ।
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रज्जब शोभै१ समय सब, क्षमा क्रोध कहु२ मौन ।
अवसर हाँसी रोवणा, अवसर बैठक गौन३ ॥२॥
क्षमा के समय क्षमा, क्रोध के समय क्रोध, कथन के समय कथन२, मौन के समय मौन, हँसने के समय हँसना, रोने के समय रोना, बैठने के समय बेठना चलने के समय चलना३, इस प्रकार समय पर सभी शोभा१ पाते हैं, असमय नहीं ।
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दरजी कवि बागा१ विरुद२, वपु बणता३ सु बणाब४ ।
रज्जब घट५ बध६ ना करहि, चिहरा७ ह्वै न चवाव८ ॥३॥
जैसे दरजी वस्त्र१ शरीर पर बैठता३ हुआ ही बनाता४ है, अधिक व कम नहीं बनाता । वैसे ही कवि जिस शरीर को जैसा शोभा देता है वैसा ही यश२ कथन करता है, कम५ तथा अधिक६ नहीं कहता । मिथ्या बात कहने वाला निंदक८ कवि अच्छा७ नहीं होता ।
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तरु नर छाया महरि१ निज, ये ह्वै सहन स्वभाव ।
पै रज्जब फल दल२ वसन३, सो लहिये ॠतु पाव४ ॥४॥
वृक्ष की निजी छाया और नर की निजी दया१ ये दो तो सहज स्वभाव से ही वृक्ष और नर से प्राप्त हो जाती है किंतु वृक्ष के फल और नवीन पत्ते२ ये ॠतु आने४ पर ही प्राप्त होते हैं, वैसे ही मनुष्य से वस्त्र३ समय पर ही मिलते हैं ।
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समय समुद्र रत्न दिये, समय सु इन्द्र उदार ।
समय शुक्ति मुक्त१ हु फलै, समय सु भार अठार ॥५॥
समय पर समुद्र ने चौहह रत्न दिये थे । समय पर इन्द्र उदार होकर वर्षा करते हैं । समय पर ही सीप को मोती१ रूप फल प्राप्त होता है । समय पर वनस्पति फूलती फलती है ।
(क्रमशः)
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