रविवार, 27 फ़रवरी 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१६४

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१६४)*
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*१६४. साधु लक्षण । दीपचन्दी*
*सद्गति साधवा रे, सन्मुख सिरजनहार ।*
*भौजल आप तिरैं ते तारैं, प्राण उधारनहार ॥टेक॥*
*पूरण ब्रह्म राम रंग राते, निर्मल नाम अधार ।*
*सुख संतोष सदा सत संजम, मति गति वार न पार ॥१॥*
*जुग जुग राते, जुग जुग माते, जुग जुग संगति सार ।*
*जुग जुग मेला, जुग जुग जीवन, जुग जुग ज्ञान विचार ॥२॥*
*सकल शिरोमणि सब सुख दाता, दुर्लभ इहि संसार ।*
*दादू हंस रहैं सुख सागर, आये पर उपकार ॥३॥*
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भा०दी०- सल्लक्षणमाह श्री दादूदेवः ।
सद्भिरेव सद्गतिर्भवति । यतो हि तेषां मनो ब्रह्मनिष्ठं भवति । सदा प्रभुं स्मरन्तस्तमेव सर्वत्र पश्यन्ति । संसारविषयवारिधे: पारं गत्वाऽन्यानपि तारयन्ति । संसारोद्धारार्थमेव तेषामागमनं भवति । पूर्णे ब्रह्मणि समाहिता: सततं प्रभुमेव ध्यायन्तस्तमेवाश्रयन्ति । सदैव संयमधना: संतुष्टचेता: सुखिनो भवन्ति । तेषां बुद्धेर्न कश्चिदवधिर्वर्तते । अतस्तेषां बुद्धि प्रभुसपर्यासंलग्ना भवति । तेषां संगेनान्येषां परब्रह्म- परमात्मनोज्ञानमुपलभ्यते । ते महात्मानः प्रभुप्रेमासक्ताः सर्वेषां जीवनाधारभूता भवन्ति । सर्वसुखदा: सर्वप्राणिनां हितप्रदा: सर्वशिरोमणयो भवन्ति । एतादृशाः सन्त: संसारेऽस्मिन् सुदुर्लभा भवन्ति, ते तु हंसायमानाः सुखसरोवरे ब्रह्मण्येव विहरन्ति । कदाचिदेव परोपकाराय संसारेऽवतरन्ति ।
उक्तं हि श्रीमद्भागवते-
कृपालुरकृतद्रोहस्तितिक्षुः सर्वदेहिनां ।
सत्यसारोऽनवद्यात्मा समः सर्वोपकारकः॥
कामैरहतधीर्दान्तो मिर्दु शुचिरकिञ्चनः ।
अनीहो मितभुक् शान्त: स्थिरो मच्छरणो मुनिः ॥
महाभारतेऽप्युक्तम्-
मोहजालस्य योनिर्हि मूढेरेव समागमः ।
अहन्यहनि धर्मस्य योनिः साधुसमागमः ॥
येषां त्रीण्यवदातानि विद्या योनिश्च कर्म च ।
तान् सेवेत्तै: समास्या हि शास्त्रेभ्योऽपि गरीयसी ॥
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सन्तों से ही सद्गति प्राप्त होती है क्योंकि उनका मन सदा ब्रह्मनिष्ठ रहता है और वे प्रभु को भजते हुए प्रभु को ही सर्वत्र देखते हैं । संसार-समुद्र के विषय-जल को स्वयं पार करके दूसरों को भी पार कर देते हैं, क्योंकि उनका संसार में परोपकार के लिये ही आगमन होता है । पूर्णब्रह्म में अनुरक्त होकर उनके नाम का ही आश्रय लेते हैं । वे सदा संयमी, संतोषी और सुखी रहते हैं ।
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उनकी बुद्धि का कोई अन्त नहीं है, क्योंकि वह अपार और अनन्त हैं । उनकी संगति करने से परब्रह्म परमात्मा का ज्ञान भी साधक को प्राप्त हो जाता है । वे सदा प्रभु-प्रेम में मस्त रहते हुए सबके जीवन-स्वरूप बन जाते हैं । सब को सुख देने वाले, सबके शिरोमणि, सन्त इस संसार में दुर्लभ ही मिलते हैं । क्योंकि वे तो सुख सागर जो ब्रह्म है, उसमें हंसों की तरह निवास करते रहते हैं । कभी-कभी संसार में परोपकार के लिये अवतरित होते हैं ।
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श्रीभागवत में –
हे प्यारे उद्धव ! मेरा भक्त कृपालु होता है । किसी भी प्राणी से बैर-भाव नहीं रखता । घोर से घोर दुःख में भी प्रसन्नता से रहता है । सत्य ही उसके जीवन का सार है । उनके मन में पाप-वासना नहीं आती । वह समदर्शी सबका भला करने वाला होता है । उसकी बुद्धि वासनाओं से दूषित नहीं होती । वह संयमी, मधुर स्वभाव वाला और पवित्र होता है । वह संग्रह से दूर रहता है । किसी वस्तु की प्राप्ति के लिये चेष्टा नहीं करता । परिमित भोजन करता है और शान्त रहता है । उसकी बुद्धि शान्त स्थिर रहती है तथा मेरा ही भरोसा करता है और सदा आत्मचिन्तन में लगा रहा है ।
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महाभारत में –
मूर्खों का संग मोहजाल को पैदा करता है और साधु का संग सदा धर्म में प्रवृत्ति कराने वाला होता है । जिनकी विद्या, कुल और कर्म ये तीनों शुद्ध हों, ऐसे साधु पुरुषों की सेवा में लगा रहना उनके साथ उठना-बैठना शास्त्रों के स्वाध्याय से भी श्रेष्ठ है ।
(क्रमशः)

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