सोमवार, 21 फ़रवरी 2022

*मैं यन्त्र हूँ*

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*दादू डोरी हरि के हाथ है, गल मांही मेरे ।*
*बाजीगर का बांदरा, भावै तहाँ फेरे ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ समर्थता का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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ब्राह्मभक्त – महाराज ! किसी ने दूसरे समय में ईश्वर की चिन्ता की है, परन्तु मृत्यु के समय नहीं कर सका, तो क्या फिर उसे इस दुःखमय संसार में आना होगा ? पहले तो उसने ईश्वर की चिन्ता की थी ।
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श्रीरामकृष्ण - जीव ईश्वर की चिन्ता तो करता है, परन्तु ईश्वर पर उसका विश्वास नहीं है, इसलिए फिर भूलकर संसार में फँस जाता है । जैसे हाथी को बार बार नहलाने पर भी, वह फिर देह पर धूल फेंक लेता है, उसी तरह मन भी मतवाला है; परन्तु हाथी को नहलाकर ही अगर उसके स्थान में बाँध रखो तो फिर वह अपने ऊपर धूल नहीं डाल सकेगा ।
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अगर मृत्यु के समय जीव ईश्वर की चिन्ता करता है तो उसका मन शुद्ध हो जाता है, वह मन फिर कामिनी-कांचन में फँसने का अवसर नहीं पाता ।
"ईश्वर पर विश्वास नहीं है, इसीलिए इतने कर्मों का भोग करना पड़ता है ।
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लोग कहते हैं, जब तुम गंगा नहाने जाते हो तब तुम्हारे शरीर के पाप किनारे के पेड पर बैठ जाते हैं, तुम गंगा नहाकर निकले नहीं कि वे पाप फिर तुम्हारे सिर पर सवार हो जाते हैं । (सब हँसते हैं ।) देहत्याग के समय जिससे ईश्वर की चिन्ता हो, उसी के लिए पहले से उपाय किया जाता है । उपाय है – अभ्यासयोग । ईश्वर-चिन्तन का अभ्यास करने पर अन्तिम दिन भी उनकी याद आयेगी ।"
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ब्राह्मभक्त - बड़ी अच्छी बातें हुई, बड़ी सुन्दर बातें हैं ।
श्रीरामकृष्ण - कैसी बेसिर-पैर की बातें मैं बक गया । परन्तु मेरा भाव क्या है, जानते हो ? मैं यन्त्र हूँ, वे यन्त्री हैं, मैं गृह हूँ, वे गृही हैं, मैं गाड़ी हूँ, वे इंजीनियर हैं, मैं रथ हूँ, वे रथी हैं, जैसा चलाते हैं, वैसा ही चलता हूँ, जैसा कराते हैं, वैसा ही करता हूँ ।
(क्रमशः)

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