बुधवार, 23 फ़रवरी 2022

*श्रीरामकृष्ण कीर्तनानन्द में*

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*इक टग ध्यान रहैं ल्यौ लागे,*
*छाकि परे हरि रस पीवैं ।*
*दादू मगन रहैं रस माते, ऐसे हरि के जन जीवैं ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पद्यांश. २७२)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)

साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(७) श्रीरामकृष्ण कीर्तनानन्द में*
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त्रैलोक्य फिर गा रहे हैं । साथ में खोल करताल बज रहे हैं । श्रीरामकृष्ण प्रेमोन्मत्त होकर नृत्य करते करते कितनी ही बार समाधिमग्न हो रहे हैं । समाधिमग्न अवस्था में खड़े हैं । देह नि:स्पन्द है । नेत्र स्थिर, मुख हँसता हुआ, किसी प्रिय भक्त के कन्धे पर हाथ रखे हुए हैं; भाव के अन्त में फिर वही प्रेमोन्मत्त नृत्य । बाह्य दशा को प्राप्त होकर गाने के पद स्वयं भी गाते हैं । यह अपूर्व दृश्य है ! मातृगतप्राण, प्रेमोन्मत्त बालक का स्वर्गीय नृत्य !
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ब्राह्मभक्त उन्हें घेरकर नृत्य कर रहे हैं । जैसे लोह को चुम्बक ने खींच लिया हो । सब के सब उन्मत्तवत् होकर ब्रह्म के गुणानुवाद गा रहे हैं । कभी कभी ब्रह्म के उस मधुर नाम का - माँ नाम का – उच्चारण कर रहे हैं - कोई कोई बालक की तरह 'माँ-माँ' करते हुए रो रहे हैं ।
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कीर्तन समाप्त हो जाने पर सब ने आसन ग्रहण किया । अभी तक समाज की सन्ध्यावाली उपासना नहीं हुई है । इस कीर्तनानन्द में सब नियम न जाने कहाँ बह गये । श्रीयुत विजयकृष्ण गोस्वामी रात को वेदी पर बैठेंगे, ऐसा बन्दोबस्त किया गया है । इस समय रात के आठ बजे होंगे ।
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सब ने आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण भी बैठे हुए हैं । सामने विजय है । विजय की सास और दूसरी स्त्रियाँ श्रीरामकृष्ण के दर्शन करना चाहती हैं और उनसे बातचीत भी करेंगी । यह संवाद पाकर श्रीरामकृष्ण कमरे के भीतर जाकर उनसे मिले ।
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कुछ देर बाद वहाँ से आकर वे विजय से कह रहे हैं, "देखो, तुम्हारी सास बड़ी भक्तिमती है । उसने कहा, 'संसार की बात अब न कहिये, एक तरंग जाती है और दूसरी आती है ।' मैंने कहा 'इससे तुम्हारा क्या बिगड़ सकता है ? तुम्हें ज्ञान तो है ।’ तुम्हारी सास ने इस पर कहा, 'मुझे कहाँ का ज्ञान है ! अब भी मैं विद्या माया और अविद्या माया के पार नहीं जा सकी । सिर्फ अविद्या माया के पार जाने से तो कुछ होता नहीं, विद्या माया को भी पार करना है, ज्ञान तो तभी होगा । आप ही तो यह बात कहते हैं ।"
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यह बात हो रही थी कि श्रीयुत वेणीपाल आ गये ।
वेणीपाल - महाराज, तो अब उठिये, बड़ी देर हो गयी, चलकर उपासना का श्रीगणेश कीजिये ।
विजय – महाराज ! अब और उपासना की क्या जरूरत है ? आप लोगों के यहाँ पहले खीर-मलाई खिलाने की व्यवस्था है और पीछे से मटर की दाल तथा और और चीजें ।
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श्रीरामकृष्ण - (हँसकर) - जो जैसा भक्त है, वह वैसी ही भेंट चढ़ाता है । सतोगुणी भक्त खीर चढ़ाता है, रजोगुणी पचास तरह की चीजें पकाकर भोग लगाता है । तमोगुणी भक्त भेड़ और बकरे की बलि देता है ।
विजय उपासना करने के लिए वेदी पर बैठें या नहीं, यह सोच रहे हैं ।
(क्रमशः)

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