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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२२. बेसास कौ अंग ~ ५३/५६*
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कहि जगजीवन प्रेम सौं, जिनकी भीगी देह ।
तिन कै नवनिधि नींपजै, दूधां बूडा७ मेह ॥५३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिनकी प्रभु प्रेम से देह आद्र हो उनके सभी प्रकार की समृद्धि रहती है । और वे अभाव विहीन रहते है आनंद आशीर्वाद मिलता है उन्हें ।
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कहि जगजीवन प्रेम सौं, तिरषा भागै भाइ ।
सात साख१ घर नींपजै, सतगुरु सींचै आइ ॥५४॥
{१. साख=पीढी(वंश=परम्परा)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रेम से तृष्णा का अंत होता है तुष्टि आती है । और ये सत्गुरु महाराज की कृपा से सात पीढी तक चलता है ।
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परमेसुर के जीव सब, रांम करैं प्रतिपाल ।
कहि जगजीवन सुखी रहौ, बूढै तरणै, बाल२ ॥५५॥
(२. बूढै, तरणै, बाल=वृद्ध, युवा एवं बालक)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सभी जीव परमात्मा के हैं प्रभु उनकी पालना भी करते हैं । सब सुखी रहें । आनंद सरोवर में हिलोरें लें ।
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कहि जगजीवन प्रेम स्यूं, अस्त३ तुचा तहां धोइ ।
हरि भजि अम्रित पीजिये, दिल मंहि दरसन होइ ॥५६॥
{३. अस्त=अस्थि(हड्डी)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अपनी अस्थि व त्वचा सब प्रभु समर्पित हो उनका मार्जन हो । हरि नाम का स्मरण रुपी अमृत पीते रहें । और अंतर में प्रभु दर्शन ही करें ।
(क्रमशः)
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