शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१६३

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१६३)*
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*१६३. साधु साँई  हेरे । त्रिताल*
*कोई राम का राता रे, कोई प्रेम का माता रे ॥टेक॥*
*कोई मन को मारे रे, कोई तन को तारे रे, कोई आप उबारे रे ॥१॥*
*कोई जोग जुगंता रे, कोई मोक्ष मुकंता रे, कोई है भगवंता रे ॥२॥*
*कोई सद्गति सारा रे, कोई तारणहारा रे, कोई पीव का प्यारा रे ॥३॥*
*कोई पार को पाया रे, कोई मिलकर आया रे, कोई मन को भाया रे ॥४॥*
*कोई है बड़भागी रे, कोई सेज सुहागी रे, कोई है अनुरागी रे ॥५॥*
*कोई सब सुख दाता रे, कोई रूप विधाता रे, कोई अमृत खाता रे ॥६॥*
*कोई नूर पिछाणैं रे, कोई तेज कों जाणैं रे, कोई ज्योति बखाणैं रे ॥७॥*
*कोई साहिब जैसा रे, कोई सांई तैसा रे, कोई दादू ऐसा रे ॥८॥*
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भा०दी०- कश्चित्साधको रामस्वरूपेऽनुरज्यति । कश्चित् रामप्रेमसागरे मज्जति । कश्चन योगसाधनैर्मनो निरुणद्धि । कश्चन संयमेनेन्द्रियाणां निरोधे यतते, कश्चितापञ्चनिवृत्तिं वाञ्छति । कश्चिद् योगयुक्तिभिरात्मानं द्रष्टुं चेष्टते । कश्चित्स्वयं मुक्तः सन् अन्यान् विमोचयितुं प्रवर्तते । कश्चन सत्य एव परमात्येति वदन् सत्यमेव बूते । कश्चन सद्गति-प्राप्तये चेष्टते । कश्चित्पारमार्थिकोपदेशेनान्यान् संसारसागरात्तारयितुं प्रयतते । कश्चन प्रभुप्रेमानुरक्तो भवति । कश्चन ज्ञानेन संसारान्तं गन्तुमीहते । कश्चन समाधौ भगवन्तं दृष्ट्वाऽभ्युतिष्ठति । कश्चित्साधको मन: प्रियाणि कर्माणि करोति । कश्चिद् भाग्यशाली हृदयशय्यायां परमात्मना सह रममाण: सौभाग्यसुखमनुभवति । कश्चित्प्रभुप्रेमासक्तस्तमेव चैकाग्रदृष्ट्या निर्निमेषं पश्यति । कश्चन समत्वेन सेवया सर्वान् सुखयति । कश्चन विधातुर्विलक्षणं कर्मदृष्ट्वाऽऽश्चर्यमनुभवति । कश्चन ज्ञानं लब्बा ज्ञानामृतं पिबति । कश्चिज्ञानमेव परामृशति । कश्चनेश्वरं साधनैः परिचेतुमिच्छति । कश्चित्तु ज्योतिरूपं प्रभुं वर्णयति । कश्चनात्मानं परमात्माऽभिन्नं जानाति । अहन्त्वीदृशोऽस्मि यत्किमपि साधनं नावलम्बे । कृतकृत्यत्वात् । स्वात्मन्येव सर्वात्मना कृतार्थत्वादितिभावः ।
उक्तं हि योगवासिष्ठे- 
अरमत तदनुस्वां प्राप्य सत्तां महात्मा
हापगतभयशोको भोगभूमावनीषु ।
सततमुदितजीवन्मुक्तरूपः प्रशान्तः
सकल इव शशाङ्को धूर्णिता पूर्णचेताः ।
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कोई राम के स्वरूप में अनुरक्त है । कोई उसके प्रेम में मग्न है । कोई राम की प्राप्ति के लिये साधनों से मन को रोक रहे हैं । कोई इन्द्रिय संयम में लगा हुआ है । कोई राम के लिये प्रपंच से उपरत हो रहा है । कोई योग की युक्तियों से आत्मा को प्राप्त करने के लिये यत्न कर रहा है । 
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कोई-कोई स्वयं मुक्त होकर दूसरों को मुक्त करने में लगे हैं । कोई कहता है कि सत्य ही परमात्मा है, अतः सत्य का पालन करना चाहिये । कोई अपनी सद्गति के लिये चेष्टा कर रहा है । कोई पारमार्थिक उपदेश के द्वारा दूसरों को तारने में लगे हुए हैं । कोई प्रभुप्रेमी बना है । कोई ज्ञान से संसार का अन्त जानना चाहता है । कोई समाधि में भगवान् को जानकर समाधि त्याग कर बैठा है । कोई तो अपने मन को प्रिय लगने वाले कर्म ही कर रहे हैं । 
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कोई-कोई भाग्यशाली अपनी हृदय शय्या पर स्थित प्रभु के साथ सौभाग्य सुख का अनुभव कर रहे हैं । कोई प्रभु प्रेम में मस्त होकर उसी को देख रहे हैं । कितने ही समत्वभाव को प्राप्त होकर दूसरों की सेवा करके उनको सुखी बना रहे हैं । कोई विधाता के कार्यों को देखकर चकित हो रहा है अथवा स्वयं अपने को विधाता समझ रहा है । कोई ज्ञान प्राप्त करके उसके रस को पी रहा है । 
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कोई-कोई ज्ञान के विचार में मग्न हो रहे हैं । कितने ही भोगभूमिरुपवन में विहार कर रहे हैं । साधनों द्वारा ईश्वर का परिचय प्राप्त करने में लगे हैं । कितने ही तेजःस्वरूप परमात्मा को भज रहे हैं । कोई-कोई उस तेजोमय ब्रह्म का वर्णन कर रहे हैं । कितने ही अपने को प्रभु स्वरूप मानते हैं । मैं तो ऐसा हूँ कि कोई भी साधन नहीं करता क्योंकि कृतकृत्य हूँ ।
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योगवासिष्ठ में लिखा है कि –
भक्त आत्मज्ञान प्राप्त करने के बाद अपनी पारमार्थिक सत्ता को प्राप्त करके भयशोक से रहित हो जीवन्मुक्त दशा को प्राप्त हो गया और अपरिमित अपरिछिन्न अपने आनन्द के मद से उसका चित्त मस्त हो रहा है । जैसे संपूर्ण कलाओं से युक्त चन्द्रमा अपरिछिन्न आकाश में विहार करता हो । ऐसी ही स्थिति श्री दादूजी महाराज की होने से वे जीवन्मुक्त हैं ।
(क्रमशः)

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