शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022

*प्रस्ताविक का अंग १८१(६.१०)*

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*पहली प्राण विचार कर, पीछे पग दीजे ।*
*आदि अंत गुण देख कर, दादू कुछ कीजे ॥*
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टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*प्रस्ताविक का अंग १८१*
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नारायण निर्जर१ सहित, गुरु नराधिपति२ जोय७ ।
नुकतै३ रीझै रज्जबा, भृत४ कृत५ परि दत्त६ होय ॥६॥
देखो७ देवताओं१ के सहित भगवान नारायण गुरु, राजा२, समय पर दास४ के किंचित३ कार्य५ पर ही प्रसन्न होकर वर दाता६ हो जाता है ।
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परवती पूछन नहीं, महादेव मुख मौन ।
आरति१ बिन उघड्या२ नहीं, आदम३ अहर४ सु भौन५ ॥७॥
पार्वती ने पहले अमर मन्त्र सम्बन्धी प्रश्न किया नहीं । अत: इस विषय में महादेव मुख से मौन ही रहे । व्याकुलता१ के बिना महादेव३ का होठ४ रूप भवन५ खुला२ ही नहीं । शुकदेव को प्राप्त होने का समय आया तब अमरनाथ में अमरमंत्र कहा गया । अत: समय पर ही सब होता है ।
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रज्जब हँसना रोवना, चुप बोलना विचार ।
चार्यों नग समय भले, बिन अवसर सु निवार ॥८॥
हँसना, रोना, मौन, बोलना ये चारों नग विचार पूर्वक समय पर ही अच्छे लगते हैं । बिना समय इनका व्यवहार करना छोड़ दो ।
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समय मीठा१ बोलना, समय सु मीठा चुप्प२ ।
उन्हालै३ छाया भली, ज्यों ब४ सियालै५ धूप्प६ ॥९॥
जैसे ग्रीष्म३ ॠतु में छाया अच्छी लगती है और शीत५ ॠतु में धूप६ अच्छी लगती है, वैसे४ ही समय पर बोलना प्रिय१ लगता है और समय पर मौन२ प्रिय लगता है ।
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तरुवर पर त्यागी नहीं, त्रिविधि भाँति सो होय ।
कब हूं छाया कब हूं फल, कब हूं पतझड़ जोय१ ॥१०॥
वृक्ष के समान त्यागी कोई नहीं है । वह तीन प्रकार के समय में तीन भांति का त्याग करता है । देखो१, कभी छाया देता है, कभी फल देता है, और कभी पतझड़ द्वारा सब पत्ते दे देता है । अत: उक्त सब काम समय पर ही होते हैं ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित प्रस्ताविक का अंग १८१ समाप्तः ॥सा. ५२५९॥
(क्रमशः)

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