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*मुझ ही मैं मेरा धणी, पड़दा खोलि दिखाइ ।*
*आत्म सौं परमात्मा, प्रकट आण मिलाइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(८)ब्राह्मसमाज में व्याख्यान । ईश्वर ही गुरु हैं ।*
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विजय - आप कृपा कीजिये, तभी मैं वेदी पर से कुछ कह सकूँगा ।
श्रीरामकृष्ण - अभिमान के जाने से ही हुआ । मैं लेक्चर दे रहा हूँ, तुम सुनो, इस अभिमान के न रहने से ही हुआ । अहंकार ज्ञान से होता है या अज्ञान से ? जो निरहंकार है, ज्ञान उसे ही होता है । नीची जमीन में ही वर्षा का पानी ठहरता है, ऊँची जमीन से बह जाता है ।
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"जब तक अहंकार रहता है, तब तक ज्ञान नहीं होता और न मुक्ति ही होती है । इस संसार में बार बार आना पड़ता है । बछड़ा 'हम्बा हम्बा'(हम-हम) करता है इसलिए उसे इतना कष्ट भोगना पड़ता है । कसाई काटते हैं ।
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चमड़े से जूते बनाते हैं, और जंगी ढोल मढ़े जाते हैं, वह ढोल भी न जाने कितना पीटा जाता है, तकलीफ की हद हो जाती है । अन्त में आँतों से ताँत बनायी जाती है । उस ताँत से जब धुनिये का धनुहा बनता है और उसके हाथ में धुनकते समय जब ताँत 'तूँ-तूँ' करती है तब कहीं निस्तार होता है, तब वह 'हम्बा-हम्बा' (हम-हम) नहीं बोलती, 'तूँ-तूँ' करती है; अर्थात् 'हे ईश्वर, तुम कर्ता हो, मैं अकर्ता; तुम यन्त्री हो, मैं यन्त्र; तुम्हीं सब कुछ हो ।'
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"गुरु, बाबा और मालिक, इन तीन बातों से मेरी देह में काँटे चुभते हैं । मैं उनका बच्चा हूँ, सदा ही बालक हूँ, मैं क्यों 'बाबा' होने लगा ? ईश्वर ही मालिक हैं, वे यन्त्री हैं; मैं यन्त्र हूँ ।
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"और कोई मुझे गुरु कहता है, तो मैं कहता हूँ 'चल साला, गुरु क्या है रे ?' एक सच्चिदानन्द को छोड़ और गुरु कोई नहीं है, उनके बिना कोई उपाय नहीं है । एकमात्र वे ही भवपार ले जानेवाले हैं । (विजय से) आचार्यगिरी बहुत मुश्किल बात है । उससे अपनी हानि होती है ।
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दस आदमियों को आप ही आप मानते हुए देखकर वह पैर के ऊपर पैर रखकर कहता है, 'मैं बोलता हूँ, तुम सुनो ।' ऐसा भाव बड़ा बुरा है । उसके लिए बस वही हद है । वही जरासा मान; अधिक से अधिक लोग कहेंगे - 'अहा, विजय बाबू बहुत अच्छा बोले, वे बड़े ज्ञानी आदमी हैं ।'
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'मैं कह रहा हूँ,' ऐसा विचार न लाना । मैं माँ से कहता हूँ - माँ, तुम यन्त्री हो, मैं यन्त्र हूँ; जैसा कराती हो, वैसा ही करता हूँ, जैसा कहलाती हो, वैसा ही कहता हूँ ।'”
विजय - (विनयपूर्वक) - आप कहें तो मैं वेदी पर बैठ सकता हूँ ।
श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए) - मैं क्या कहूँ ? तुम्हीं ईश्वर से प्रार्थना करो । जैसे चन्दामामा सभी के मामा हैं वैसे वे भी सभी के हैं । अगर आन्तरिकता होगी तो भय की बात नहीं है ।
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विजय के फिर विनय करने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा, जाओ, जैसे पद्धति है, वैसा ही करो । उन पर आन्तरिक भक्ति के रहने ही से काम हो जायेगा ।' वेदी पर बैठकर विजय ब्राह्मसमाज की पद्धति के अनुसार उपासना करने लगे । प्रार्थना के समय विजय 'माँ-माँ’ कहकर पुकार रहे हैं । सुनकर सब लोग द्रवीभूत हो गये ।
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उपासना के पश्चात् भक्तों की सेवा के लिए भोजन का आयोजन हो रहा है । दरियाँ, गलीचे, सब उठा लिये गये । वहाँ पत्तलें पड़ने लगीं । प्रबन्ध हो जाने पर भक्तों ने भोजन करने के लिए आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण का भी आसन लगाया गया । वे भी बैठे और वेणीपाल की परोसी हुई पूड़ियाँ, कचौड़ियाँ, पापड़ और अनेक प्रकार की मिठाइयाँ, दही-खीर आदि ईश्वर को भोग लगाकर आनन्दपूर्वक भोजन करने लगे ।
(क्रमशः)
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