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*सब चतुराई देखिए, जे कुछ कीजै आन ।*
*दादू आपा सौंपि सब, पीव को लेहु पिछान ॥*
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टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*व्यभिचार वरदाई१ का अंग १८०*
इस अंग में बता रहे हैं कि - व्यभिचार भी वरदाता१ के सामान हो जाता है ~
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गोपी कुबरी शुक्ति विभीषण, देखो द्रौपदी चीर ।
व्यभिचारों इनकी बनिआई, त्यों आतमा शरीर ॥१॥
गोपियां कृष्ण में अनुरक्त हुईं, कंस की दासी कूबरी ने कृष्ण की सेवा की । यह व्यभिचार उनके लिये वरदाता के समान ही हुआ । शीप ने समुद्र का जल छोड़कर स्वाति बिन्दु ग्रहण की तब उसे मोती मिला । विभीषण ने भाई को छोड़ कर राम की शरण ली तब उसे लंका का राज्य मिला । जैसे उक्त सब की बात व्यभिचार से अच्छी ही बनी, वैसे ही जीवात्मा शरीराध्यास को छोड़ कर प्रभु का भजन करता है तब वह भी मुक्त हो जाता है ।
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शरीर सौंज१ संसार मिलन की, बाबै२ दई बनाय ।
जन रज्जब यूं आज्ञा मेटे, जीव ब्रह्म हो जाय ॥२॥
ईश्वर२ ने शरीर रूप सामग्री१ संसार में मिलने की बनादी है किंतु उक्त प्रकार प्रभु की आज्ञा को मेंट कर अर्थात संसार में न मिलकर प्रभु का भजन करे, तो जीव ब्रह्म हो जाता है ।
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पट्टा१ डाल्या पंच ने, विरचे२ स्वारथ साह३ ।
सो चाकर किन राखिये, पतिशाहू पतिशाह ॥३॥
जिसकी पंच ज्ञानेन्द्रियों ने विषय-भोग का अधिकार-पत्र डाल दिया है अर्थात विषयों से उपराम होकर प्रभु परायण हो गई हैं और जो स्वार्थ रूप साहूकार३ से विरक्त२ हो गया है, उस सेवक को बादशाहों के भी बादशाह भगवान् क्यों न रक्खेंगे ? अवश्य अपनायेंगे । पंच विषय और स्वार्थ का त्याग व्यभिचार है किंतु देखो वरदाता के समान ही कल्याणप्रद सिद्ध होता है ।
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घर वर छाड्या घण१ दिहां२, उमहिं३ मीत संभाल४ ।
हूं बलिहारी सापुरुष५, अब अपणे घर घाल६ ॥४॥
हमारी बुद्धि वृत्ति ने घर और शरीर रूप वर का राग बहुत१ दिनों२ से छोड़ दिया है और ब्रह्म-विद्या३ के द्वारा अपने मित्र ब्रह्म के विचार तथा चिंतन४ में संलग्न है । हे श्रेष्ठ-पुरुष५ संत ! हम आपकी बलिहारी जाते हैं हमारा व्यभिचार सिद्ध हो गया है । अब आप हमें अपने आदि घर ब्रह्म स्वरूप में पहुँचाने६ की कृपा करें अर्थात ब्रह्मरूप बना दें ।
(क्रमशः)
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