बुधवार, 2 मार्च 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१६५

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
https://www.facebook.com/DADUVANI
भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१६५)*
===============
*१६५. परिचय उत्साह मंगल । दीपचन्दी*
*अम्ह घर पाहुणां ये, आव्या आतम राम ॥टेक॥*
*चहुँ दिशि मंगलाचार, आनन्द अति घणा ये ।*
*वरत्या जै जैकार, विरुद वधावणां ये ॥१॥*
*कनक कलश रस मांहिं, सखी भर ल्यावज्यो ये ।*
*आनन्द अंग न माइ, अम्हारे आवज्यो ये ॥२॥*
*भावै भक्ति अपार, सेवा कीजिये ये ।*
*सन्मुख सिरजनहार, सदा सुख लीजिये ये ॥३॥*
*धन्य अम्हारा भाग, आव्या अम्ह भणी ये ।*
*दादू सेज सुहाग, तूँ त्रिभुवन धणी ये ॥४॥*
.
भा०दी०- हे साधु सखि ! मदीयं स्वान्तःकरणं प्रभुपदार्पणेनानन्दभरितम् । अतो मम मनसि बुद्धौ चात्याधिक आनन्द उल्लसति । अद्य मे सर्वविधं मङ्गलं जातम् । मदीयमन्त:करणं तदीय यशोगानं तनुते । हे सत्सखि ! त्वमपिशुद्धान्त:करणं प्रभुप्रेपरसेन प्रपूर्य मामपि प्रेमरसं पायय तदाऽसीमानन्दो भवेत् । त्वमपि भक्त्याऽनन्त- परमात्मन: संमुखीभूय सेवां कुर्वती भजस्व । तदाऽमन्दानन्दो जायेत । हे त्रिभुवन-स्वामिन् ! भवान् मम हृदयान्तःशय्यायां प्रविश्य सौभाग्यसुखं वितरतीति मदीयमहोभाग्यम् ।
उक्तं हि योगवासिष्ठे-
निर्वाणमासे गतशङ्कमासे निरीहमासे सुसुखेऽहमासे ।
यथास्थितं नित्यमनन्तमासे तदेव मासे न कथं समासे ॥
सर्व सदैवाहमनन्तमेकं न किञ्चिदेवाऽप्यथवाऽतिशान्तम् ।
सर्वं न किञ्चिच्चसदेकमस्मि न चाऽस्मि चेतीयमहोनुशान्तिः ॥
.
हे सन्तरूपी सखी ! आज मेरे अन्तःकरणरूपी घर में प्रभु के आने से मेरा घर आनन्द से भर गया । इसलिये मेरे मन चित्त बुद्धि में जो अन्तःकरण रूपी घर के कोने हैं, वे भी आज आनन्द से भर गये । आज मेरा मंगल हो गया, मेरा अन्तःकरण उसी का गान कर रहा है ।
.
हे सन्तसखी ! तुम भी अपने अन्तःकरण रूपी कलश में प्रभु का प्रेम रस भरकर मेरे पास आकर उसी प्रेमरस को मुझे पिलाओगी तब उस समय असीम आनन्द आयेगा । तुम भी उसी परमात्मा के सन्मुख होकर उसकी सेवा करते हुए नित्य सुख को प्राप्त कर लेना । हे तीनों लोकों के स्वामिन् ! आपने मेरी हृद्यशय्या पर आकर जो मुझे सौभाग्य सुख दिया है, यह मेरा बड़ा ही अहोभाग्य है ।
.
योगवासिष्ठ में कहा है कि –
हे वसिष्ठमुने ! अब मैं ज्ञान होने के कारण निर्वाण स्वरूप में स्थित हूँ । अज्ञान के निवृत्त होने के कारण मेरी सारी शंकायें भी नष्ट हो गई, अतः मैं निःशंक हूँ । सर्वथा इच्छा के न रहने से निरीह हूँ । विक्षेप रहित आत्म-सुख में स्थित हूँ । चित्त की आत्माकार धारावाहिक वृत्ति होने से नित्य अनन्त आत्मा में स्थित हूँ । अब मैं प्रबुद्ध हो गया । अतः समस्त प्राणियों की जो समात्मा ब्रह्म है मैं उसी में स्थित क्यों न होऊं, क्योंकि ब्रह्म भाव में जो बाधक है उन सब का नाश हो गया, अतः मैं ब्रह्मरूप से स्थित हूँ ।
.
मैं सदा ही एक अनन्त तथा सर्वरूप अतिशान्त हूँ । मेरे सिवा और कुछ भी नहीं है । मैं ही एक सत् चित् आनन्द रूप हूँ अथवा मेरे मैं कहीं भी देश काल आदि की धारा के न होने से कहीं भी नहीं हूँ । यह ही निर्वाणरूपी आश्चर्यमयी परमशान्ति है । श्री दादूजी महाराज भी निर्वाण-रूप होने से आनंद से विभोर होकर ही प्रभु की स्तुति यशोगान कर रहे हैं ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें