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*दादू पूरण ब्रह्म विचारिये, तब सकल आत्मा एक ।*
*काया के गुण देखिये, तो नाना वरण अनेक ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पारिख का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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विजय - आद्याशक्ति के दर्शन और ब्रह्मज्ञान ये कैसे हों ?
श्रीरामकृष्ण - हृदय के विकल होकर उनसे प्रार्थना करो और रोओ । चित्त शुद्ध हो जायेगा । निर्मल पानी में सूर्य का बिम्ब दिखायी देगा । भक्त के 'मैं' रूपी आईने में उस सगुण ब्रह्म - आद्याशक्ति के दर्शन होंगे; परन्तु आईने को खूब साफ रखना चाहिए ।
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“मैला रहने पर सच्चा बिम्ब न पड़ेगा” ।
‘मैं’ रूपी पानी में सूर्य को तब तक इसलिए देखते हैं कि सूर्य के देखने का और कोई उपाय नहीं है, और प्रतिबिम्ब-सूर्य को छोड़ यथार्थ-सूर्य के देखने का जब तक कोई दूसरा उपाय नहीं मिलता, तब तक वह प्रतिबिम्ब-सूर्य ही सोलहों आने सत्य है । जब तक 'मैं' सत्य है, तब तक प्रतिबिम्ब-सूर्य भी सोलहों आने सत्य है । वही प्रतिबिम्ब-सूर्य आद्याशक्ति है ।
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"यदि ब्रह्मज्ञान चाहते हो, तो उसी प्रतिबिम्ब-सूर्य को पकड़कर सत्य-सूर्य की ओर जाओ । उस सगुण ब्रह्म से, जो प्रार्थनाएँ सुनते हैं, कहो; वे ही ब्रह्मज्ञान देंगे, क्योंकि जो सगुण ब्रह्म हैं, वे ही निर्गुण ब्रह्म भी हैं, जो शक्ति हैं, वे ही ब्रह्म भी हैं, पूर्ण ज्ञान के बाद दोनों अभेद हो जाते हैं ।
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"माँ ब्रह्मज्ञान भी देती हैं, परन्तु शुद्ध भक्त कभी ब्रह्मज्ञान नहीं चाहता "एक और मार्ग है, ज्ञानयोग, परन्तु यह बड़ा कठिन है । ब्राह्मसमाजवाले तुम लोग ज्ञानी नहीं हो, भक्त हो । जो लोग ज्ञानी हैं उन्हें विश्वास है कि ब्रह्म सत्य है और संसार मिथ्या स्वप्नवत् ।
"वे अन्तर्यामी हैं । उनसे सरल और शुद्ध मन से प्रार्थना करो । वे सब समझा देंगे । अहंकार छोड़कर उनकी शरण में जाओ सब पा जाओगे ।"
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यह कहकर श्रीरामकृष्ण गाने लगे - " 'मन ! अपने ही आप में रहो । किसी दूसरे के घर न जाओ । जो कुछ चाहोगे वह बैठे हुए ही पाओगे, अपने अन्तःपुर में जरा खोजो तो सही । वह पारस पत्थर परम धन है, जो कुछ चाहोगे वह तुम्हें दे सकता है । चिन्तामणि की नाट्यशाला के द्वार पर कितने ही मणि पड़े हुए हैं ।'
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“जब बाहर के लोगों से मिलना तब सभी को प्यार करना; मिलकर एक हो जाना - फिर द्वेषभाव जरा भी न रखना । 'वह आदमी साकार मानता है, निराकार नहीं मानता; वह निराकार मानता है, साकार नहीं मानता, वह हिन्दू है, वह मुसलमान है, वह क्रिस्तान है, यह कह कहकर घृणा से नाक न सिकोड़ना; क्योंकि उन्होंने जिसे जिस तरह समझाया हैं, उसमें वैसी ही बुद्धि है । समझना कि सब की प्रकृति भिन्न भिन्न हैं ।
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यह जानकर तुमसे जहाँ तक हो सके, दूसरों से मिलने की ही चेष्टा करना और उन्हें प्यार करना । फिर अपने घर में शान्ति और आनन्द का भोग करो । 'हृदयरूपी घर में ज्ञान का दीपक जलाकर ब्रह्ममयी का मुख देखो ।' अपने ही घर में अपना स्वरूप देख सकोगे । चरवाहे जब गौओं को चराने के लिए ले जाते हैं, तब चरागाह में सब गौएँ एक में मिल जाती हैं । जब शाम के समय अपने घर में जाती हैं तब फिर सब अलग अलग हो जाती हैं । इसीलिए मैं कहता हूँ, अपने घर में – ‘अपने आप’ में ही रहो ।"
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रात के दस बज जाने पर श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर चलने के लिए गाड़ी पर चढ़े । साथ में दो-एक सेवक भक्त भी हैं । घोर अंधेरा है, गाड़ी पेड़ के नीचे खड़ी हुई है । वेणीपाल रामलाल के लिए पूड़ियाँ और मिठाई गाड़ी पर रख देने के लिए ले आये ।
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वेणीपाल - महाराज, रामलाल आ नहीं सके, उनके लिए इन लोगों के हाथ कुछ पूड़ी-मिठाई भेजना चाहता हूँ, अगर आप आज्ञा दें ।
श्रीरामकृष्ण - (घबराकर) - ओ बाबू वेणीपाल ! तुम मेरे साथ यह सब न भेजो । इससे मुझे दोष लगता है । मुझे अपने साथ किसी चीज का संचय करके रखना न चाहिए । तुम कुछ और न सोचना ।
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वेणीपाल - जो आज्ञा, आप आशीर्वाद दीजिये ।
श्रीरामकृष्ण - आज खूब आनन्द हुआ । देखो, जिसका दास अर्थ हो, आदमी वही है जो लोग अर्थ का व्यवहार नहीं जानते, वे मनुष्य होकर भी मनुष्य नहीं हैं । आकृति तो उनकी मनुष्य जैसी है परन्तु व्यवहार पशु जैसा । तुम धन्य हो । इतने भक्तों को तुमने आनन्दित कर दिया ।
(क्रमशः)
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