रविवार, 10 अप्रैल 2022

*खालसे का अंग १९२(९-१२)*

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*सेवक की रक्षा करै, सेवक की प्रतिपाल ।*
*सेवग की वाहर चढै, दादू दीन दयाल ॥*
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टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*खालसे का अंग १९२*
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स्रक्१ चंदन सर्पहु जड्या२, मनिख३ तहां नहिं जाय ।
अहि सु आदम्यों४ ना बनै५, पास गये सो खाय ॥९॥
चन्दन की शाखा-माला१ सर्पो से घिरी२ रहती है । मनुष्य३ वहां नहीं जाते । सर्प और मनुष्य३ में एकता नहीं होती५ । पास जाने से वे मनुष्यों४ को काटते हैं अत: उनमें काटना खास बात है, वह चंदन पर जाने से भी नहीं छुटती ।
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भक्त बछल सुरही१ प्रभु, सुमीर्याँ करहिं संभाल ।
गोदा२ ज्ञान सनेह गत३, काट हु केशरि४ काल ॥१०॥
भक्त वत्सल कामधेनु१ रूप प्रभो ! आप स्मरण करने पर अपने भक्तों की संभाल अवश्य करते हैं । यह आपकी खास बात है । अत: मेरे माया२ सबन्धी ज्ञान और प्रेम को नष्ट३ करके काल रूप सिंह४ को काट कर नष्ट करें ।
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काया कुंभनी१ निकसहिं, नारू२ नाग३ सु और ।
एक सु चरि४ चुग बाहुड़हि५, एक हु की नहिं ठौर ॥११॥
शरीर में नहरूआ२ निकलता है और पृथ्वी१ से सर्प३ निकलता है । उनमें एक सर्प तो इधर उधर भ्रमण४ करते हुये चुगा करके पुन: लौट५ कर पृथ्वी में प्रवेश करता है और दूसरे नहरूआ को तो कोई स्थान नहीं रहता । वैसे ही एक प्रकार के नर तो संसार में आते जाते हैं और दूसरे ज्ञानी को संसार में स्थान नहीं प्राप्त होता, वह तो ब्रह्म में मिल जाता है उस पर किसी का भी अधिकार नहीं रहता ।
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नींद न आय हि ठौर तिहुं१, विषम बंदगी२ वैर ।
ज्ञानी देखो ज्ञान३ करि, रज्जब कही न गैर४ ॥१२॥
विषय, भक्ति२ और बैर इन तीनों१ स्थितियों में नींद नहीं आती है । हे ज्ञानी जनों ! बुद्धि३ द्वारा विचार करके देख सकते हो, मैनें यह ठीक ही बात कही है, विरुद्ध४ अर्थ देने वाली नहीं कही है ।
(क्रमशः)

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