मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१८१

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१८१)*
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*१८१. आशीर्वाद मंगल । झपताल*
*जय जय जय जगदीश तूँ, तूँ समर्थ सांई ।*
*सकल भुवन भानैं घड़ै, दूजा को नांहीं ॥टेक॥*
*काल मीच करुणा करै, जम किंकर माया ।*
*महा जोध बलवंत बली, भय कंपै राया ॥१॥*
*जरा मरण तुम तैं डरै, मन को भय भारी ।*
*काम दलन करुणामयी, तूँ देव मुरारी ॥२॥*
*सब कंपैं करतार तैं, भव-बंधन पाशा ।*
*अरि रिपु भंजन भय गता, सब विघ्न विनाशा ॥३॥*
*सिर ऊपर सांई खड़ा, सोई हम माहीं ।*
*दादू सेवक राम का निर्भय, न डराहीं ॥४॥*
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भा०दी०- हे जगदीश्वर ! त्वं सर्वाधीश्वरः कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुञ्च सर्वविधसामर्थ्य- शाल्यस्ति । सर्वदा त्वं विजयस्व । त्रिभुवनकर्ता हर्ता रक्षिता च त्वमेवासि । नान्यस्त्वत्सम: कोऽप्यस्ति । कालो यमो यमदूताश्चेते सर्वेऽपि त्वामार्तस्वरेण प्रणमन्ति । मनोऽपि त्वत्तो विभेति । हे मुरारे ! त्वं कामदहन: करुणामयश्चासि । सृष्टिकर्तुस्तव भयात्सर्वेऽपि विभ्यति । भवान् भवबन्धन छेदकस्तथाऽऽन्तर- बाह्यशत्रूणां विनाशकोऽस्ति तथा विधानपि शमयति । तव कृपया भगवद्भक्ता निर्भीता विचरन्ति । य: सर्वव्यापकः प्रभुः सर्वशिरोमणिविराजते स ह्यन्तर्निष्ठस्तिष्ठति । तस्माद्रामभक्ता एव निर्भया भवन्ति । अतो रामभक्तिरेव सर्वैः कार्येति भावः ।
उक्तं कठोपनिषदि-
यदिदं किं च जगत्सर्वं प्राण एजति नि:सृतम् ।
महद्भयं बज्र मुद्यतं य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥
भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः ।
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः ॥
यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उमे भवत ओदनः ।
मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः॥
एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचद्रमसौ विधृतौ तिष्ठतः । लोकानां लोकपालानां मद्भयं कल्पजीविनाम् । अद्भुतरामायणे चाय्युक्तम् :-
सर्वलोकैक - निर्माता सर्वलोकैकरक्षिता ।
सर्वलोकैकसंहर्ता सर्वात्माऽहं सनातनः ॥
सर्वेषामेव वस्तूनामन्तर्यामी पिता ह्यहम् ।
मय्येवान्तःस्थितं सर्वं नाहं सर्वत्र संस्थितः ॥
योऽन्तकः सर्वभूतानां रुद्रः कालात्मकः प्रभु ।
र्मदाज्ञयाऽसौ सततं संहरत्येव मे तनुः ॥
आदित्या वसवो रुद्रा मरुतश्च तथाऽश्विनौ ।
अन्याश्च देवताः सर्वा मच्छासनमधिष्ठिताः ॥
गन्धर्वा उरगा यक्षा सिद्धाः साध्याश्च चारणाः ।
भूतरक्षपिशाचाश्च स्थिताः शास्त्रे स्वयंभुवः ॥
कालकाष्ठा निमेषाश्च मुहूर्ता: दिवसाः क्षणाः ।
युगमन्वन्तराण्येव मम तिष्ठन्ति शासने॥
पराश्चैव परार्धाश्च कालभेदास्तथा परे ।
चतुर्विधानि भूतानि स्थावराणि चराणि च ॥
नियोगादेव वर्तन्ते सर्वाण्येव स्वयम्भुवः ॥
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हे जगदीश्वर ! आप सबके स्वामी करने में, न करने में, अन्यथा करने में, सर्वसमर्थ हैं । आपकी जय हो, जय हो । त्रिलोकी की रचना, संहार आपसे ही होते हैं, दूसरा कोई नहीं है । काल, मृत्यु, यमदूत और माया आपके आगे आर्तस्वर से सदा विनय और नमस्कार करते रहते हैं ।
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बड़े-बड़े योद्धा, बलवानों में जो बलवान् है, वे भी आपके भय से कांपते हैं । यह मन भी आपके भय से दूर-दूर दौड़ रहा है । हे मुरारे ! आप काम को जलाने वाला तथा दयामय हैं । सृष्टि के बनाने वाले ! आपसे सब भयभीत रहते हैं । आप संसार के बन्धन को काटने वाले तथा बाहर-भीतर के काम-क्रोध आदि शत्रुओं के विनाशक हैं और विघ्नों को दूर करते हैं ।
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आपकी कृपा से ही आपके भक्त संसार में निर्भय विचरण करते हैं । आप सर्व शिरोमणि हैं । प्राणियों के अन्दर भी आप ही विराजते हैं । राम भक्त सदा निर्भय रहते हैं । अतः सबको राम की ही भक्ति करनी चाहिये ।
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कठ में लिखा है कि –
परब्रह्म परमेश्वर से निकला हुआ यह जो कुछ भी संपूर्ण जगत् है, वह उस प्राणस्वरूप परमेश्वर में ही चेष्टा करता है । इसे उठे हुए बज्र के समान महान् भयस्वरूप परमेश्वर को जो जानता है, वह अजर अमर बन जाता है । इसी के भय से अग्निदेव तपता है । इसके भय से सूर्य तपता है । इन्द्र, वायु और पांचवां मृत्युदेव इसके भय से ही अपने-अपने कर्म में दौड़-दौड़कर प्रवृत्त हो रहे हैं ।
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संहार-काल में जिस परमेश्वर के ब्राह्मण, क्षत्रिय अर्थात् प्राणिमात्र भोजन बन जाते हैं सबका संहार करने वाली मृत्यु भी भोज्य वस्तु के साथ लगाकर खाने वाली तरकारी बन जाती है वह परमेश्वर जहाँ जैसा है उसको ठीक-ठीक कौन जान सकता है ?
हे गार्गि ! उसी अक्षर ब्रह्म के शासन में सूर्य चन्द्रमा भी रहते हैं । कल्पपर्यन्त जीने वाले लोक तथा लोकपाल भी उसके भय से भयभीत रहते हैं ।
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अद्भुतरामायण में लिखा है –
हे हनुमन् ! मैं संपूर्ण लोकों का एक मात्र सृष्टा, पलक तथा संहारक, सबका आत्मा, सनातन परमात्मा हूँ । मैं समस्त वस्तुओं के भीतर रहने वाला अन्तर्यामी आत्मा तथा सबका पिता हूँ । सभी जगत् मेरे भीतर स्थित है, मैं इस संपूर्ण जगत् के भीतर नहीं हूँ । जो संपूर्ण भूतों के संहारक भगवान् काल रुद्र हैं, वे भी मेरे ही शरीर में हैं तथा मेरी ही आज्ञा से सदा संहार-कार्य में लगे रहते हैं ।
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आदित्य, वसु, रुद्र, मरुद्र्ण अश्विनीकुमार तथा अन्य संपूर्ण देवता मेरे शासन में रहते हैं । गन्धर्व, नाग, यक्ष, सिद्ध, साध्य, चारण, भूत, यक्ष, राक्षस तथा पिशाच भी मुझ स्वयम्भू के शासन में स्थित हैं ।
कलाकाष्ठा, निमेष, मुहूर्त, दिवस, क्षण, ऋतु, वर्ष, मास, और पक्ष भी मुझ प्रजापति के शासन में स्थित हैं ।
युग, मन्वन्तर, परार्ध पर तथा अन्यान्य काल-भेद भी मेरी ही आज्ञा में स्थित हैं । चार प्रकार के स्थावर और जंगम प्राणी मुझ स्वयम्भू की आज्ञा से ही चलते हैं ।
(क्रमशः)

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