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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ ४५/४८*
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परम पुरिष हरि सकल है, घट घट रमतां रांम ।
कहि जगजीवन आदि गुर, अंत सोइ मधि नांम ॥४५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हरिजी परम पुरुष है वे सब में हैं । हर ह्रदय में रम रहे वे राम, वे ही हमारे आदि मध्य व अंत तीनों कालों के गुरु हैं ।
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कहि जगजीवन रांमजी, ब्रह्म अगनि मैं ताइ१ ।
काया कंचन नांम रत, प्रेम भगति गुन गाइ ॥४६॥
{१. ताइ=तप्त कर(दग्ध कर)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि है राम जी इस देह को ब्रह्माग्नि में तपायें फिर यह देह कंचन हो स्मरण में रत हो प्रभु का गुणानुवाद करती रहे ।
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कहि जगजीवन रांमजी, इक आवै इक जाइ ।
भगति तुम्हारी सदा रहै, दूजा भ्रम बिलाइ ॥४७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं संसार में आवागमन लगा ही रहता है आपकी भक्ति ही सदा अक्षुण है अन्य सब भ्रम है जो विलीन हो जाता है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, जे कहिये सौ नांम ।
तेज पुंज तन तेज मन, तेज निरखि सब ठांम ॥४८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो कुछ कहने योग्य है वह आपका नाम ही है । वह तेजोमय देह, मन जो भाव रुप में है सब जगह आपका ही नजर आता है ।
(क्रमशः)
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