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*दादू इक निर्गुण इक गुणमयी, सब घट ये द्वै ज्ञान ।*
*काया का माया मिले, आतम ब्रह्म समान ॥*
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टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*खालसे का अंग १९२*
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गुरु नरिंद१ तै गत२ नर जांही, तिनका सोच न उपजै मांही ।
तरुवर पत्र शीश तैं केशा, तुछ तूटों का कौन अंदेशा३ ॥१३॥
वृक्ष के पत्ते और शिर के केश, इन तुच्छ वस्तु के टूटने में कौन सोच३ करता है । वैसे ही गुरु और नरेन्द्र१(राजा) से जो नर नष्ट२ होते हैं इनकी चिंता मनमें नहीं होती । कारण, वे दोषी होते हैं ।
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भार सहित भार धर हलका, भार ऊतर्यों भारी ।
विकट१ कला२ विकट३ गति४ वपु में, वेत्ता५ लेहु विचारी ॥१४॥
रक्त माँसादि के भार के सहित होता है तब कुटुम्ब के पोषण का भार शिर पर धर के भी शरीर हलका रहता है और बुढापे में रक्त माँसादि का बोझ उतर कर कृश्य हो जाता है तब शरीर भारी लगता है, उठा भी नहीं जाता । शरीर में युवावस्था की विशाल१ शक्ति२ और बुढापे की भयानक३ चेष्टा४ देखी जाती है सो ज्ञानी५ जन विचार लें यह शरीर ऐसा होता है ।
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एक जानपण१ चपलता२, मेटी मत की लीक३ ।
भूख न भासै भर्तृहरि, पाणि४ लगाई पीक ॥१५॥
एक तो बुद्धिमत्ता१ अर्थात लाल का जानना और दूसरी चिंता की चंचलता२, इन दोनों ने भर्तृहरि के विचार की रेखा३ को मिटा दिया । भर्तृहरि में धन की इच्छा नहीं भासती, फिर भी हाथ४ के पीक लगा ही ली । इस साखी में यह कथा है -
एक दिन चाँदनी रात में भर्तृहरि एक नगर की सड़क से जा रहे थे । सड़क पर किसी ने पान का पीक डाला था, वह चन्द्र किरण पड़ने से लाल के समान चमक रहा था । उसे देखकर भर्तृहरि ने सोचा, यह लाल पड़ा है अपने तो काम का नहीं है, किसी रथ आदि के निचे आकर टूट जायेगा । अत: उठालें, किसी गरीब को दे देंगे । फिर उस पर हाथ डाला तब हाथ पर पीक लग गया । कहा भी है -
"रत्न जटित मंदिर तजे, बहु सखियन का साथ ।
धृक मन धोके लाल के पड़ा पीक पर हाथ ।"
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बालै बूढे एक गति१, प्रत्यक्ष देखो जोय२ ।
दूज अमावस के निकट, शशि शिशु रूपी होय ॥१६॥
बालक और बूढे की चेष्टा१ एक सी ही होती है । उसे तुम प्रत्यक्ष देख२ सकते हो । देखो, अमावस्या के निकट की दूज को चन्द्रमा बालक होता है और चतुर्दशी को बूढा होता है किंतु दोनों दिन की प्रकाशादि चेष्टा समान होती हैं ।
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दृष्टि रु मुखर मन बुद्धि ह्वै मांही, तो लिखत१ में संचर नांहीं ।
चतुर्वस्तु में विछुटे कोई, रज्जब पाठ शुद्ध नहीं होही ॥१७॥
लेखक की दृष्टि, मुख, मन और बुद्धि, ये चारों यदि लेखनी के स्थान में होंगे तो लेख१ में अशुद्धि२ नहीं रहेगी । उक्त चारों वस्तुओं में से कोई एक अलग हो जाय तो लेख का पाठ शुद्ध नहीं होगा । अशुद्धि ही जायगी ।
(क्रमशः)
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