शनिवार, 16 अप्रैल 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१८३

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१८३)*
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*१८३. संत उपदेश । राज मृगांक ताल*
*संतों ! और कहो क्या कहिये ।*
*हम तुम्ह सीख इहै सतगुरु की, निकट राम के रहिये ॥टेक॥*
*हम तुम मांहि बसै सो स्वामी, सांचे सौं सचु लहिये ।*
*दर्शन परसन जुग जुग कीजे, काहे को दुख सहिये ॥१॥*
*हम तुम संग निकट रहैं नेरे, हरि केवल कर गहिये ।*
*चरण कमल छाड़ि कर ऐसे, अनत काहे को बहिये ॥२॥*
*हम तुम तारन तेज घन सुन्दर, नीके सौं निरबहिये ।*
*दादू देख और दुख सब ही, तामें तन क्यों दहिये ॥३॥*
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भा०दी०- हे सन्त: ! भवन्तो वदन्तु किमन्यदुपदिश्यते मया भवद्भ्यः । भगवन्तं भजन्तो वयं सर्वेऽपि भगवत्समीपस्था: एव निवसामः, इत्येव मे सद्गुरुणोपदिष्टम् । स भगवान् रामोऽस्मद्- हृदय मध्यवर्ती विराजते । अतस्तमेव भजन्तो भवन्तो ब्रह्मानन्दरसामृतं पिबन्तु । मा विषयेषु मनोवृत्ति निधाय व्यर्थमेव यूयं कष्टं सहध्वम् । यतोहि विषया महारोगा: कष्टदाश्चेति सर्वविदितम् । वयं सर्वेऽपि प्रभुचरणशरणीभूय तत्रैव मनोबुद्धिं निधाय वसामः । मोक्षप्रदातुर्भगवतश्चरणशरणं विहायान्यत्र पर्यटनं निष्प्रयोजनम् । संसारतारकं चैतन्यस्वरूपमतिसुन्दरं चरणशरणमाश्रित्य भजनेन स्वजीवनं यापनीयम् । अन्यत्सर्वं दुःखरूपं प्रलयाग्नितुल्यम् । चरण-शरणागतिरेव सर्वसाधनेषु श्लाघीयसीत्यवधेयम् ।
उक्तं हि बोधेन्द्रस्वामिना-
विष्णोर्नामैव पुंसां शमलमपनुदत् पुण्यमुत्पादयच्च
ब्रह्मादिस्थानभोगाद् विरतिमथगुरोः श्रीपदद्वन्द्वभक्तिम् ।
तत्वज्ञानञ्च विष्णोरिह मृतिजननभ्रान्तिबीजं च दग्ध्वा
ब्रह्मानन्दैकसिन्धौ महति च पुरुष स्थापयित्वा निवृत्तम् ॥
श्रीमद्भागवते-
समाश्रिता ये पदपल्लवप्लवं महत्पदं पुण्ययशो मुरारेः ।
भवाम्बुधिर्वत्सपदं परं पदं पदं पदं यत् विपदां न तेषाम् ॥
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हे सन्तो ! आप लोग ही कहो कि मैं आपको क्या उपदेश करूं? मैं तो यही अच्छा मानता हूँ कि आप लोग और मैं सब मिलकर भगवान् का भजन करते हुए उसी के पास निवास करें । यह ही मेरे सतगुरु ने उपदेश दिया था । वह राम सबके हृदय में ही बसता है । उसी को भजकर ब्रह्मानन्द रस का पान करो ।
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मायिक विषयों में मन को लगाकर व्यर्थ में ही कष्ट क्यों सह रहे हो? क्योंकि यह सर्वविदित है कि विषय भोग तो महारोग रूप है तथा कष्ट देने वाले हैं । हम सब प्रभु के चरणों की शरण ग्रहण करके वहाँ पर ही अपनी बुद्धि मन को लगाकर निवास करें, क्योंकि अन्यत्र जाना तो निष्फल है ।
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संसार से पार करने वाले चैतन्य-स्वरूप अति सुन्दर शरणागति को प्राप्त करके भजन द्वारा अपने जीवन का निर्वाह करें । अन्य सब तो दुःख रूप प्रलयानल की तरह जलाने वाले हैं । अतः प्रभु के शरण में जाना ही अच्छा है ।
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बोधेन्द्रस्वामी जी लिख रहे हैं कि –
विष्णु भगवान् का नाम, चिन्तन करने वाले भक्तों के पापों को नष्ट करता है, पुण्य को पैदा करता है, ब्रह्म आदि लोकों के भोगों से वैराग्य पैदा करके गुरु के चरण-कमलों में भक्ति पैदा करता है, तत्वज्ञान को पैदा करके जन्म-मरण आदि के बीज रूप अविद्या को नष्ट करके ब्रह्मानन्द के समुद्र में डुबोकर निवृत्त हो जाता है ।
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श्रीमद्भागवत में –
जिन्होंने पुण्य-कीर्ति मुकुन्द भगवान् के पद-पल्लव की नौका का आश्रय लिया है, जो सत्पुरुषों का सर्वस्व है, उनके लिये भवसागर बछड़े के खुर से बने गड्ढे के समान है । उन्हें परम पद की प्राप्ति हो जाती है और उनके लिये विपतियों का निवास-स्थान यह संसार नहीं रहता ।
(क्रमशः)

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