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*दादू राम नाम में पैस कर, राम नाम ल्यौ जाइ ।*
*यहु इंकत त्रिय लोक में, अनत काहे को जाइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ स्मरण का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*मू. इ. –*
*नामदेव नाम निर्दोष रटे रुचि,*
*पाप भगैं कुचि१ देह तैं दूरी ।*
*उर तैं अपराध उठाय धरे दश,*
*राम भये वश पात ज्यूं पूरी ॥*
*जाप जपै निषपाप निरम्मल,*
*भीर परै गहि साँच सबूरी ।*
*राघो कहे जल में थल में,*
*सु चराचर में हरि देखै हजूरी ॥२२८॥*
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नामदेव जी दश दोषों (१. चोरी, २. जारी, ३. हिंसा, ४. निन्दा, ५. झूठ, ६. कठोर वचन, ७. वाचालता, ८. तृष्णा, ९. अनिष्ट चिन्तन, १०. बुद्धि विकार) से रहित होकर प्रीति पूर्वक नाम को रटते थे । उनके पाप और मैले१ कामादि विकार शरीर से दूर भाग गये थे ।
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हृदय से नाम के दश अपराधों(१. सुजनों की निन्दा, २. उपास्य में भेद बुद्धि, ३. गुरु का अपमान, ४. वेद शास्त्र की उपेक्षा, ५. नाम महिमा को अर्थवाद मानना, ६. नाम के भरोसे पाप करना, ७. अन्य श्रेष्ठ कर्मों के समान नाम स्मरण को जानना, ८. बिना श्रद्धा ही नाम का उपदेश करना, ९. नाम ग्रहण करने में मन नहीं लगाना, १०. नाम की कीर्ति सुनकर भी नाम में प्रीति नहीं करना) इन दश को हृदय से हटा दिया था । राम जी नामदेव जी के ऐसे वश में हो गये थे जैसे पत्ते बँधी हुई पूली के वश में हो जाते हैं अर्थात् पूली से पत्ते दूर नहीं होते, वैसे ही रामजी नामदेव से दूर नहीं होते थे ।
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नामदेव सदा निष्पाप होकर अर्थात् कामना रूप पाप से दूर रहकर निर्मल अर्थात् निजनाम जो स्वरूप भूत होता है, गुण और कर्म से नहीं बनता ऐसे राम नाम का जप करते रहते थे । दुःख पड़ने पर सत्य और संतोष को धारण करते थे ।
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वे जल, स्थल और चराचर में सम्यक् प्रकार हरि को देखते हुये भी सदा मूर्तिमान अपने सामने ही देखते थे ।
(क्रमशः)
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