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*परिचय पीवै राम रस, राता सिरजनहार ।*
*दादू कुछ व्यापै नहीं, ते छूटे संसार ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*भक्ति से संसारासक्ति कम होती है*
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इसीके लिए साधन-भजन है । जितनी ही उनकी चिन्ता करेंगे, संसार की भोगवासना उतनी ही घटती जायेगी । उनके पादपद्मों में जितनी भक्ति होगी, उतनी ही आसक्ति घटती जायेगी, उतना ही देहसुख की ओर से मन हटता रहेगा, पराई स्त्री माता के समान जान पड़ेगी, अपनी स्त्री धर्म में सहायता देनेवाली मित्र जान पड़ेगी, पशुभाव दूर हो जायेगा, देवभाव आयेगा, संसार से बिलकुल अनासक्त हो जाओगे । तब संसार में रहने पर भी जीवन्मुक्त होकर विचरण करोगे ।
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चैतन्यदेव जैसे भक्त अनासक्त होकर संसार में थे ।
(महिमा से) "जो सच्चा भक्त हैं, उसके पास चाहे हजार वेदान्त का विचार फैलाओ, और 'स्वप्नवत्' कहो, उसकी भक्ति जाने की नहीं । घूम-फिरकर कुछ न कुछ रहेगी ही । बेत के वन में एक मूसल पड़ा था, वही 'मूषलं कुलनाशनम्' हो गया था ।
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"शिव के अंश से पैदा होने पर मनुष्य ज्ञानी होता है । ब्रह्म सत्य है और संसार मिथ्या, इसी भाव की ओर मन झुका रहता है । विष्णु के अंश से पैदा होने पर प्रेम और भक्ति होती है । वह प्रेम और वह भक्ति मिट नहीं सकती । ज्ञान और विचार के बाद यह प्रेम और भक्ति अगर घट जाय, तो एक दूसरे समय बड़े जोरों से बढ़ जाती हैं ।'
(क्रमशः)
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