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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ ५७/६०*
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सकल किया वौ किया नहीं, किया सु क्रित्तिम१ नांम ।
कहि जगजीवन किया कहै, न किया निहचल रांम ॥५७॥
(१. क्रित्तिम=कृत्रिम)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो स्वार्थ भाव से किया वो अनकीया जान । वह कृत्रिम है, दिखावा है, उसे साधन का होना मत जानों जो बिना स्वार्थ के स्मरण है वह ही निश्चल व स्थायी है ।
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न किया मांहि किया रहै, न किया किया निवास ।
को गति जांणैं क्यों किया, सु कहि जगजीवनदास ॥५८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु जी, आपने ब्रह्म नाद से सब कुछ किया । और जिन्होंने आपका नाम स्मरण किया उन्होंने ही नाम की महिमा जानी है ।
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न किया साहिब सब किया, अनंत लोक विस्तार ।
कहि जगजीवन किया साहिब, सबद किया निज सार ॥५९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि न करते हुये भी प्रभु ने सब किया अनंत लोकों का विस्तार कर दिया । प्रभु ने सार रुप में संसार के लिये अपना नाम किया जो सार रुप में साधन का मार्ग है ।
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करै अंगीक्रित२ रांमजी, आतम आनंद होइ ।
कहि जगजीवन सौंज३ सब, अंग मंहि राखै धोइ ॥६०॥
{२. अंगीक्रित=अंगीकार(स्वीकार)} (३. सौंज=पूजा के साधन)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु सब स्वीकारते हैं । जिससे आत्मा आनंदित होती है, वे सभी साधन जिससे हम प्रभु को पाने का प्रयास करते हैं, जो पूजा कही जाती है; उसे वे अंगीकार करते हैं यह ही प्रभु की दयालुता है । जो सब अपने लिये नहीं कर परोपकार के लिये किया है, उसमें ही साधन का निवास है वह ही प्रभु तक पहुंचने के लिये होना है । वह क्यों हुआ यह परमात्मा ही जानते हैं । ऐसा संत कहते हैं प्रभु ऐसा अपने प्रियजन से ही करवाते हैं ।
(क्रमशः)
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