गुरुवार, 21 अप्रैल 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१८५

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
https://www.facebook.com/DADUVANI
भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१८५)*
===============
१८५. काल चेतावनी । भंगताल
साथी ! सावधान ह्वै रहिये ।
पलक मांहि परमेश्‍वर जाणै, कहा होइ कहा कहिये ॥टेक॥
बाबा, बाट घाट कुछ समझ न आवै, दूर गवन हम जाना ।
परदेशी पंथी चलै अकेला, औघट घाट पयाना ॥१॥
बाबा, संग न साथी कोई नहीं तेरा, यहु सब हाट पसारा ।
तरवर पंखी सबै सिधाये, तेरा कौण गँवारा ॥२॥
बाबा, सबै बटाऊ पंथ सिरानैं, सुस्थिर नांहीं कोई ।
अंति काल को आगे पीछे, बिछुरत बार न होई ॥३॥
बाबा, काची काया कौण भरोसा, रैन गई क्या सोवे ।
दादू संबल सुकृत लीजे, सावधान किन होवे ॥४॥
.
भाव्दी०- हे मम सुहृत् ! सावधानो भव । यतोहि भविष्यति क्षणे किं भविष्यतीति को जानीते? अतोऽत्र विषये मया किं वक्तव्यं तत्त्विदं परमेश्वर एव जानाति । हे तात! त्वं दूरं जिगमिषुरसि, मार्गे विनभूता: कामक्रोधादय: शत्रवो वसन्ति, तेषां परिभवार्थमुपायमपि न जानासि ।
हे जीव ! त्वं परदेशवासी एकाकी च कथं दुर्जयान् शत्रून् जेतुं शक्ष्यसि । हे तात ! नहि कश्चित् तव सहाय: संसारेऽस्मिन् स्त्रीपुत्रादिषु मध्ये, न तेष्वास्था कार्या । नहि कश्चिदपि पदार्थोऽस्मिञ्जगति पारमर्थिक: सत्य: । जगद्- व्यापारोऽपि प्रायो विप्रलम्भनम् मिथ्याभूतत्वात् । यथा पक्षिण: सायन्तनं वृक्षनीमाश्रयन्ति, प्रातस्तं विहाय विहायस्युड्डीयन्ते तथैव कुटुम्बिनो जना: अपि त्वां विहाय चान्ते गमिष्यन्ति ।
हे मूर्ख मन: ! त्वमेव वद, एतेषां मध्ये कस्तवात्मीयो न कोऽपीत्यर्थः, सर्वेऽपि पथिका: सन्ति । नहि कोऽपि सुस्थिरोऽस्ति । अतो भवबन्धनप्राया एव बान्धवाः सन्ति । तेष्वनुरागोऽप्येको महारोग: ।तेषां संयोगोऽपि वियोगग्रस्त: । यथा वृक्षपत्राणि वृक्षादनायासायेनैव पतन्ति तथैव काय-पल्लवोऽपि निपतिष्यति झटिति प्रयासमन्तरेणैव । शरदभ्रतडित्सु गन्धर्वनगरेषु च येन कदाचित्स्थैर्य दृष्टं, स एव शरीरेऽपि स्थिरतां द्रक्ष्यति । आयुरपि भिन्नघटाम्बुवत् प्रतिक्षणं क्षीयते । अतस्त्वया पुण्य- मुपार्जनीयं तदेव त्वया सह यास्यतीति सावधानो भव ।
उक्तं हि योगवासिष्ठे-
किं नामेदं वत सुखं येयं संसार- संततिः ।
जायते मृतये लोको प्रीयते जननाय च॥
अस्थिरा: सर्व एवेमे भावा सचराचरचेष्टिताः ।
आपदा पतयः पापा भावविभवभूमयः ॥
अय: शलाकाः सदृशाः परस्परमसङ्गिनः ॥
श्लिष्यन्ते केवलं भावा मन:कल्पनया स्वया ।
मनः समायत्तमिदं जगदाभोगि दृश्यते ॥
मनश्चासदिवाभाति केन स्म परिमोहिताः ।
असतैव वयं कष्टं विकृष्टा मूढबुद्धयः ॥
मृगतृष्णाम्भसा दूरे वने मुग्ध - मृगा इव ।
न केनचिच्च विक्रीता विक्रीता इव संस्थिताः ॥
वत मूढा वयं सर्वे जानाना अपि शाम्बरम् ।
किमेतेषु प्रपञ्चेषु भोगा नाम सुदुर्भगाः ।
मुधैव हि वयं मोहात्संस्थिता बद्धभावनाः ॥
अज्ञातं वस्तु - कालेन व्यर्थमेव वयं वने ।
मोहे निपतिता मुग्धाः श्वभ्रे मुग्धा मृगा इव ॥
.
हे मेरे साथी ! तू सावधान हो जा । पता नहीं कि अगले क्षण में क्या होने वाला है? इस विषय में मैं कुछ नहीं कह सकता हूँ । भगवान् ही जानें । हे तात ! तुमको बहुत दूर जाना है । मार्ग में कामक्रोध आदि शत्रु बैठे हैं, उनको जीतने का उपाय भी तुम नहीं जानते हो । हे जीव ! तू परदेशी है, अकेला है । तू उन दुर्गम शत्रुओं को कैसे जीत सकेगा? स्त्री-पुत्रादिकों के मध्य तेरा कोई साथी भी नहीं दिखता । उनमें आस्था भी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि इस संसार में कोई भी पदार्थ पारमार्थिक सत्यवाला नहीं है । जगत् का व्यवहार भी मिथ्या होने से केवल ठग रूप ही है ।
.
जैसे पक्षीगण सायंकाल वृक्ष पर आकर बैठ जाते है और प्रातः होने पर आकाश में उड़ जाते हैं, ऐसे ही कुटुम्बी जन भी तेरे को छोड़कर चले जायेंगे । हे मूर्ख मन ! तू बता तो सही, इनमें तेरा कौन है? सभी रस्ते चलने वाले हैं । इनमें कोई भी स्थिर रहने वाला नहीं है । भाई बन्धु तो मोह जाल में बाँधने वाले बन्धन रूप ही हैं । उनसे प्रेम करना भी एक रोग ही है । उनका संयोग भी वियोग से ग्रस्त ही है ।
.
जैसे वृक्ष का पत्ता वृक्ष से अनायास ही गिर जाता है, वैसे ही यह शरीर भी बिना प्रयास के ही गिर जायगा । जैसे शरद् ऋतु के बादलों में बिजली की चकाचौंध में गन्धर्व नगर में किसी ने स्थिरता देखी हो तो इस शरीर में भी स्थिरता को देखे । आयु भी फूटे घड़े में जल की तरह प्रतिक्षण क्षीण हो रही है । अतः सत्कर्म करके पुण्य उपार्जित करो, यह ही तुम्हारे साथ में जाने वाला है ।
.
योगवासिष्ठ में लिखा है कि –
जो वह संसार का विस्तार है, इसमें क्या सुख है? कुछ भी तो नहीं । चर, अचर प्राणियों के चेष्टा के विषय तथा केवल वैभवकाल में ही रहने वाले जितने भोग के साधन हैं, वे सब के सब अस्थिर हैं आपत्तियों के स्वामी अर्थात् आपत्ति में डालने वाले तथा पापरूप हैं । जैसे मरीचिका में जल न होने पर भी भ्रम से उसे जल समझकर उसके द्वारा मोहित हुए मृग वन में बड़ी दूर तक खिंचे चले जाते हैं ।
.
उसी प्रकार मूढ-बुद्धि वाले लोग संसार के पदार्थों में सुख न होने पर भी उनमें सुख मान लेते हैं और उसी सुख के लोभ से आकृष्ट होकर इधर-उधर भटकते रहते हैं । यद्यपि हम बिके हुए नहीं हैं तथापि बिके हुए की तरह परवश हो रहे हैं । यह सब माया का खेल है, इस बात को जानते हुए भी सब लोग मूढ बने बैठे हैं । इस माया से मुक्त होने का कोई उपाय नहीं करते । यह कितने दुःख का विषय है?
.
संसार के इस प्रपंच में जो अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण भोग दिखाई देते हैं । ये क्या है? इस पर विचार करना चाहिये । सब लोग व्यर्थ ही इनके मोह में पड़कर भ्रान्तिवश अपने को बद्ध मान कर बैठे हैं, जैसे गड्ढे में गिरा हुआ मृग दीर्घकाल के बाद यह जानता है कि मैं गड्ढे में गिरा हूँ । वैसे ही लोगों ने भी बहुत समय के बाद यह जाना है कि हम मूढ बनकर व्यर्थ में ही मोह में पड़े हैं ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें