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🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
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*दादू सूतां पीछे सुरति निरति सूं, बालक ज्यूं पय पीवे ।*
*ऐसे अन्तर लगन नाम सूं, आतम जुग-जुग जीवे ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(८)सन्ध्या-संगीत और ईशान से संवाद*
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सन्ध्या हो रही है । श्रीरामकृष्ण टहल रहे हैं । मणि को अकेले बैठे हुए और कुछ सोचते हुए देखकर एकाएक श्रीरामकृष्ण ने उनसे स्नेह भरे स्वरों में कहा - "मरकीन के एक-दो कुर्ते ला देना, सब के कुर्ते मैं पहन भी नहीं सकता - कप्तान से कहने के लिए सोचा था, परन्तु अब तुम्हीं ला देना ।" मणि खड़े हो गये, कहा, “जो आज्ञा ।"
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सन्ध्या हो गयी है । श्रीरामकृष्ण के कमरे में धूप दी गयी । वे देवताओं को प्रणाम करके, बीज मन्त्र जपकर, नामकीर्तन कर रहे हैं । घर के बाहर विचित्र शोभा है । आज कार्तिक की शुक्ला सप्तमी है । चन्द्रमा की निर्मल किरणों में एक ओर श्रीठाकुरमन्दिर जैसे हँस रहा है, दूसरी और भागीरथी सोते हुए शिशु के हृदय की तरह काँप रही है ।
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ज्वार पूरा हो गया है । आरती का शब्द गंगा के स्निग्ध और उज्ज्वल प्रवाह से उठती हुई कलध्वनि से मिलकर बहुत दूर जाकर विलीन हो रहा था । श्रीठाकुर-मन्दिर में एक ही साथ तीन मन्दिरों में आरती हो रही है – काली-मन्दिर में, विष्णु-मन्दिर में और शिव-मन्दिर में । द्वाद्वश-शिव-मन्दिरों में एक एक के बाद आरती होती है ।
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पुरोहित एक शिव-मन्दिर से दूसरे में जा रहे हैं, बायें हाथ में घण्टा है, दाहिने मे पंच प्रदीप, साथ में परिचारक है, हाथ में झाँझ लिये हुए । आरती हो रही है, उसके साथ श्रीठाकुर-मन्दिर के दक्षिण-पश्चिम के कोने से शहनाई की मधुर ध्वनि सुन पड़ रही है ।
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वहीं नौबतखाना है, सन्ध्या की रागिनी बज रही है । आनन्दमयी के नित्य उत्सव से जीवों को मानो यह शिक्षा मिल रही है, कोई निरानन्द न होना, ऐहिक भावों में सुख और दुःख तो हैं ही; जगदम्बा भी तो है; फिर क्या चिन्ता, आनन्द करो । दासी के लड़के को अच्छा भोजन और अच्छे कपड़े नहीं मिलते, न उसके अच्छा घर है, न अच्छा द्वार, फिर भी उसके हृदय में यह भरोसा रहता है कि उसके माँ है ।
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एकमात्र माता की गोद उसका अवलम्ब है । यह बनी-बनायी माँ नहीं, अपनी निजी माँ है । मैं कौन हूँ, कहाँ से आया, कहाँ जाऊँगा, सब माँ जानती है । इतना सोचेगा कौन ? मैं जानना भी नहीं चाहता । अगर समझने की जरूरत होगी तो वे समझा देंगी ।
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बाहर कौमुदी की उज्ज्वलता में संसार हँस रहा है और भीतर कमरे में भगवत्-प्रेमाभिलिप्त श्रीरामकृष्ण बैठे हुए हैं । कलकत्ते से ईशान आये हैं । फिर ईश्वरी प्रसंग हो रहा है । ईशान को ईश्वर पर बड़ा विश्वास है । वे कहते हैं, जो घर से निकलते समय एक बार भी दुर्गा नाम स्मरण कर लेते हैं, शूल हाथ में लिये हुए शूलपाणि उनके साथ जाया करते हैं । विपत्ति में फिर भय क्या है ? शिव स्वयं उसकी रक्षा करते हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - (ईशान से) - तुम्हें बड़ा विश्वास है । हम लोगों को इतना नहीं है । (सब हँसते हैं ।) विश्वास से ही वे मिलते हैं ।
ईशान - जी हाँ ।
श्रीरामकृष्ण - तुम जप, सन्ध्या, उपवास, पुरश्चरण, यह सब कर्म कर रहे हो । यह अच्छा है । जिसकी ईश्वर पर अन्तर से लगन रहती है, उससे वे यह सब काम करा लेते हैं । फल की कामना न करके यह सब कर्म कर लेने से मनुष्य उन्हें अवश्य पाता है ।
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“शास्त्रों में बहुत से कर्म करने के लिए कहा है, इसलिए मैं कर रहा हूँ’ - इस तरह की भक्ति को वैधी भक्ति कहते हैं । एक और है, राग-भक्ति । वह अनुराग से होती है । ईश्वर पर प्रीति आने पर होती है, जैसे प्रह्लाद को हुई थी । उस भक्ति के आने पर फिर कभी कर्मों की आवश्यकता नहीं होती ।"
(क्रमशः)
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