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*दादू अहनिशि सदा शरीर में, हरि चिंतत दिन जाइ ।*
*प्रेम मगन लै लीन मन, अन्तरगति ल्यौ लाइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ निष्काम पतिव्रता का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*खेलत है नित पूजन ज्यूं करि,*
*घंट बजाय रु भोग लगावै ।*
*ध्यान धरै सु प्रणाम करै जब,*
*सांझ परै तब शैन करावै ॥*
*नाम कहै नित वाम हि देव से,*
*पूजन देहु भले मन भावै ।*
*गांव हि जावत आत दिना त्रय,*
*दूध पिवाई न पीय सुहावै ॥२१६॥*
जब नामदेवजी की पांच वर्ष के लगभग अवस्था हो गई तब वे खेल खेलने लगे किन्तु सांसारिक खेल नहीं खेलते थे । जैसे नानाजी को पूजा करते देखते थे, वैसी ही प्रीति रीति से सब सेवा पूजा का खेल खेलते थे । कोई पत्थर आदि की मूर्ति कल्पित करके उसको स्नान कराते, वस्त्र पहनाते, पुष्प चढ़ाते, धूप और आरती करते, घण्टा बजा कर भोग लगाते, ...
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आँखें बन्द करके ध्यान में मन लगाते, भली भांति प्रणाम करते, जब सायंकाल होता तब शयन कराते, ऐसा ही खेल खेलते थे । कुछ समय पश्चात् नामदेव जी अपने नाना वामदेवजी को प्रतिदिन बारंबार कहने लगे मुझे आपके ठाकुरजी की पूजा करने दीजिये । यह मेरे मन को प्रिय लगती है, मैं अच्छी प्रकार करूंगा ।
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नामदेवजी की सच्ची प्रीति देखकर एक दिन वामदेवजी ने कहा – मैं एक ग्राम को जाऊंगा और तीन दिन में आऊंगा तब तुम पूजा करना । ठाकुरजी को दूध पिलाना किन्तु भगवान् को पिलाये बिना तुम नहीं पीना । यह सुनकर नामदेवजी ने कहा – हां बहुत अच्छा, यह तो मुझे बहुत ही अच्छा लगता है भगवान् को पिलाए बिना नहीं पीऊंगा ।
(क्रमशः)

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