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*दादू मैं क्या जानूँ क्या कहूँ, उस बलिये की बात ।*
*क्या जानूँ क्यों ही रहै, मो पै लख्या न जात ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ हैरान का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(३) सेवक(मणि) के विचार*
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सन्ध्या होने के पूर्व मणि घूम रहे हैं और सोच रहे हैं कि 'राम की इच्छा' यह तो बहुत अच्छी बात है । इससे तो अदृष्ट(Predestination), स्वाधीन इच्छा(Free Will), स्वतन्त्रता(Liberty), आवश्यकता(Necessity), आदि सब का झगड़ा मिट जाता है ।
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मुझे डाकुओं ने पकड़ लिया, इसमें भी 'राम की इच्छा’; फिर मैं तम्बाकू पीता हूँ इसमें भी 'राम की इच्छा', डाकूगिरी करता हूँ इसमें भी 'राम की इच्छा'; मुझे पुलिस ने पकड़ लिया, इसमें भी 'राम की इच्छा'; मैं साधु हो गया, इसमें भी 'राम की इच्छा’; मैं प्रार्थना करता हूँ कि हे प्रभु ! मुझे असदबुद्धि मत देना - मुझसे डकैती मत कराना, यह भी 'राम की इच्छा' है ।
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सद् इच्छा और असद् इच्छा वे ही देते हैं । फिर भी एक बात है, असद् इच्छा वे क्यों देंगे ? - डकैती करने की इच्छा वे क्यों देंगे ? इसके उत्तर में श्रीरामकृष्णदेव ने कहा, “उन्होंने जानवरों में जिस प्रकार बाघ, सिंह, सर्प उत्पन्न किये हैं, पेड़ों में जिस प्रकार विष का भी पेड़ पैदा किया है, उसी प्रकार मनुष्यों में चोर-डाकू भी बनाये हैं । ऐसा उन्होंने क्यों किया ? इसे कौन कह सकता है ? ईश्वर को कौन समझेगा ?
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“किन्तु यदि उन्होंने ही सब किया है तो उत्तरदायित्व का भाग(Sense of Responsibility) नष्ट हो जाता है, पर वह क्यों होगा ? जब तक ईश्वर को न जानोगे, उनके दर्शन न होंगे, तब तक 'राम की इच्छा' इस बात का सोलह आने बोध नहीं होगा । उन्हें प्राप्त न करने से यह बात एक बार समझ में आती है, फिर भूल हो जाती है । जब तक पूर्ण विश्वास न होगा, तब तक पाप-पुण्य का बोध, उत्तरदायित्व(Responsibility) का बोध रहेगा ही ।
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श्रीरामकृष्णदेव ने समझाया, 'राम की इच्छा' । तोते की तरह 'राम की इच्छा' मुँह से कहने से नहीं चल सकता । जब तक ईश्वर को नहीं जाना जाता, उनकी इच्छा से हमारी इच्छा का ऐक्य नहीं होता, जब तक 'मैं यन्त्र हूँ' ऐसा बोध नहीं होता, तब तक वे पाप-पुण्य का ज्ञान, सुख-दुःख का ज्ञान, पवित्र अपवित्र का ज्ञान, अच्छे-बुरे का ज्ञान नष्ट नहीं होने देते, उत्तरदायित्व का ज्ञान(Sense of Responsibility) नष्ट नहीं होने देते, ऐसा न होने से उनका मायामय संसार कैसे चलेगा ?
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श्रीरामकृष्णदेव की भक्ति की बात जितनी सोचता हूँ, उतना ही अवाक् रह जाता हूँ । जब उन्होंने सुना कि केशव सेन हरिनाम लेते हैं, ईश्वर का चिन्तन करते हैं, तो ये तुरन्त उन्हें मिलने के लिए गये और केशव तुरन्त उनके आत्मीय भी हो गये । उस समय उन्होंने कप्तान की बातें नहीं सुनीं । केशव विलायत गये हैं, उन्होंने साहबों के साथ खाया है, कन्या को दूसरी जाति के पुरुष के साथ ब्याह दिया है - कप्तान की ये सब बातें गायब हो गयी ।
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"भक्ति के सूत्र में साकारवादी और निराकारवादी एक हो जाते हैं; हिन्दू, मुसलमान, ईसाई एक हो जाते हैं; चारों वर्ण एक हो जाते हैं । भक्ति की ही जय होती है । धन्य श्रीरामकृष्ण ! तुम्हारी भी जय ! तुम्हीं ने सनातन धर्म के इस विश्वजनीन भाव को फिर से मूर्तिमान किया । इसीलिए समझता हूँ कि तुम्हारा इतना आकर्षण है !
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सब धर्मावलम्बियों को तुम परम आत्मीय समझकर आलिंगन करते हो ! तुम्हारी भक्ति है । तुम सिर्फ देखते हो - अन्दर ईश्वर की भक्ति और प्रेम है या नहीं ? यदि ऐसा हो तो वह व्यक्ति तुम्हारा परम आत्मीय है - भक्तिमान यदि दिखायी पड़े तो वह जैसा तुम्हारा आत्मीय है ।
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मुसलमान को भी यदि अल्लाह के ऊपर प्रेम हो, तो वह भी तुम्हारा अपना आदमी होगा; ईसाई को यदि ईसा के ऊपर भक्ति हो, तो वह तुम्हारा परम आत्मीय होगा । तुम कहते हो कि सब नदियाँ भिन्न-भिन्न दिशाओं से बहकर समुद्र में गिरती हैं । सब का गन्तव्य स्थान एक समुद्र ही है ।
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"सुना है, यह जगत् ब्रह्माण्ड महाचिदाकाश में आविर्भूत होता है, फिर कुछ समय के बाद उसी में लय हो जाता है - महासमुद्र में लहर उठती है, फिर समय पाकर लय हो जाती है । आनन्द-सिन्धु के जल में अनन्त-लीला-तरंगें हैं । इन लीलाओं का आरम्भ कहाँ है ? अन्त कहाँ है ?
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उसे मुँह से कहा नहीं जाता - मन से सोचा नहीं जाता । मनुष्य की क्या शक्ति - उसकी बुद्धि की ही क्या शक्ति ! सुनते हैं, महापुरुष समाधिस्थ होकर उसी नित्य परम पुरुष का दर्शन करते हैं - नित्य लीलामय हरि का साक्षात्कार करते हैं । अवश्य ही करते हैं कारण, श्रीरामकृष्णदेव ऐसा कहते हैं ।
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किन्तु चर्मचक्षुओं से नहीं, मालूम पड़ता है, - दिव्य चक्षु जिसे कहते हैं उसके द्वारा - जिन नेत्रों को पाकर अर्जुन ने विश्वरूप का दर्शन किया था, जिन नेत्रों से ऋषियों ने आत्मा का साक्षात्कार किया था जिस दिव्य चक्षु से ईसा अपने स्वर्गीय पिता का बराबर दर्शन करते थे । वे नेत्र किसे होते हैं ?
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श्रीरामकृष्णदेव के मुँह से सुना था, वह व्याकुलता के द्वारा होता है । इस समय वह व्याकुलता किस प्रकार हो सकती है ? क्या संसार का त्याग करना होगा ? ऐसा भी तो उन्होंने आज नहीं कहा !”
(क्रमशः)

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