रविवार, 24 अप्रैल 2022

*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ ६९/७२*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ ६९/७२*
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अंबु अनहद आतम कँवल, दीप जीप दुर जोति ।
कहि जगजीवन करम करि, दूर करी हरि छोति४ ॥६९॥
{४. छोति=सूतक(हरिभजन में विघ्नरूप पाप=कर्म)}
संतजगजीवन जी कहते है कि देह में अनहद नाद रुपी जल में आत्मा कमल जिस दीप प्रजवल्न की ज्योति से दीप्त है । ऐसे कर्मों को करके ही हे जीव तू उन बाधाओं को दूर कर सकता है जो भजन में बाधक पाप कर्म है ।
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कथणीं कोइ कैसी कथौ, करणीं उतरै पार ।
कहि जगजीवन करणीं कथणीं, रांम नांम निज सार ॥७०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि कहने को जीव कुछ भी कहे । वह अपने किये कर्मों से ही पार पाता है । संत कहते हैं कि हमारी कथनी व करणी दोनों ही सार रुप या तत्व रुप है ।
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प्रथम* सु प्रांण अपांन हरि, व्यांन उदांन समांन ।
कहि जगजीवन लीन करि, यहु निज ब्रह्म गियांन* ॥७१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि साधक जन को अपने शरीर की प्राण, अपान, व्यान, व उदान इन वायुओ को सबसे पहले नियंत्रण में करना आना चाहिए । पश्चात अन्य साधनों से ब्रह्मज्ञान के लिये प्रयास करना चाहिये ।
(*=*. ब्रह्म जिज्ञासु को चाहिये कि वह सर्वप्रथम अपने शरीर की प्राण, अपान, व्यान एवं उदान=इन पाँचों वायुओं को प्राणायाम द्वारा नियन्त्रित करे । तदनन्तर अन्य साधनों से ब्रह्मज्ञान के लिये प्रयास करे ॥७१॥)
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कहि जगजीवन जन्त्र हरि, तेज पुंज प्रकास ।
कुल उधारण कुल कलस, कुल मंडल तहां दास ॥७२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सकल मनोरथ दायक यंत्र प्रभु है । जो तेज पुंज है वे ही कुलतारक, कुल कलश, कुल मंडल है जहां उनकी शरण मैं भक्त दास हो निवसते हैं ।
(क्रमशः)

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