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*देह निरंतर शून्य ल्यौ लाई,*
*तहं कौण रमे कौण सूता रे भाई ॥*
*दादू न जाणै ये चतुराई,*
*सोइ गुरु मेरा जिन सुधि पाई ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद. ६७)
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
अथ राग राम गिरी(कली) १, गायन समय प्रातः ३ से ५
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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५. अद्भुत खेल । कहरवा
संतो अद्भुत खेल अगाधा, सो खेले कोई इक साधा ॥टेक॥
जो गगन गाँठ को शोधै१, सो पंचन को परमोधै२ ॥१॥
जो वायु बैल गहि लादै, सो वित३ बाप न दादै ॥२॥
जो तेज४ मांहिं तृण राखै, सो महिमा कौन सु भाखै ॥३॥
जो पाणी में घृत काढै, सो मति सब तैं बाढ़ै५ ॥४॥
धर६ पृथ्वी७ पुड़८ दूझै९, सो रज्जब रामति१० बूझै११ ॥५॥५॥
अध्यात्म अद्भुत खेल बता रहे हैं -
✦ संतो ! आँतर साधन रूप खेल अथाह है । उसको कोई एक बिरला सन्त ही खेलता है अर्थात करता है ।
✦ जो आकाश रूप शब्द की ग्रन्थि अर्थात रहस्य को खोजता१ है वही अपनी पञ्च ज्ञानेन्द्रियों को समझता२ है ।
✦ जो प्राण वायु रूप बैल को संयम द्वारा पकड़ के उसपर नाम चिंतन रूप भार लादता है अर्थात श्वास द्वारा प्रति श्वास नाम चिंतन करता है, उस व्यापार से मिलने वाला रूप धन३ बाप दादा से नहीं मिल सकता ।
✦ जो ब्रह्मज्ञान रूप अग्नि४ में मन रूप तृण को रखता है अर्थात ब्रह्म विचार से भिन्न मन को नहीं जाने देता, उसकी वह महिमा कौन कह सकता है ? अर्थात अकथनीय है ।
✦ जो इन्द्रिय-विषय रूप जल में भी ब्रह्म को देखता है, उसकी वह बुद्धि सबसे महान५ है ।
✦ जो क्षमा७ की पीठ८ पकड़६ कर अर्थात क्षमा धारण करके संत सेवा करता९ है, वह इस खेल१० को समझ११ पाता है ।
(क्रमशः)

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