मंगलवार, 26 अप्रैल 2022

*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ ७३/७६*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ ७३/७६*
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कहि जगजीवन वरण विधि, उतपति सब कै नांम ।
नांम निभाहै५ नांम सौं, जा परि रीझै रांम ॥७३॥
(५. निभाहै-पूर्ण करे या साधना करे)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वर्ण या जाति, ये सब जीव उत्पन्न होने के बाद के नाम हैं । और ये नाम सब स्मरण से ही  साधना रत होते हैं जिससे प्रभु प्रसन्न हो इन्हें अपनी शरण में लेते हैं ।
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पवन लीन हरि हरि करै, मन मंहि जोगी रांम ।
कहि जगजीवन आतमां, तिहि रस भोगी नांम ॥७४॥ 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिनका अपने श्वास पर नियंत्रण है वे जन तो हर सांस में हरि, हरि करते हैं । और मन से वे राम से जुड़े रहते हैं श्वास स्मरण व मन में राम स्थित रहते हैं । उन जन की आत्मा इसी प्रकार के रस का भोग करती है उन्हें अन्य संसारी संसाधनों की आवश्यकता नहीं होती है ।
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सप्त उभै हरि दीप मंहि६, कौंण कला कहौं रांम ।
कहा आचरण कहा क्रिया, कौंण सु बरणित धाम ॥७५॥
(६. सप्त उभै हरि दीप मंहि- सातों द्वीप तथा चौदह लोकों में)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सप्त द्वीप व चौदह लोकों मे दो अक्षर का हरिनाम ही विचरता है यह प्रभु कि अद्भुत कला है । कहा प्रभु का आचरण है? क्योंकि वे तो निरंजन हैं वे क्या करते हैं ? और कौन से धाम में रहते हैं । कोइ नहीं जानता है ।
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केइ हरि सेवा बंदगी, केइ जप तप केइ जोग ।
जगजीवन केइ वासना, केइ भगति केइ भोग ॥७६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हरि सेवा कैसी हो, कैसा जप हो तप हो कैसा प्रभु से योग हो संत कहते हैं कितने ही प्रकार की वासनायें हैं,, कितने ही प्रकार की भक्ति है, और नाना प्रकार के भोग हैं ।
(क्रमशः) 

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