बुधवार, 27 अप्रैल 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१८८

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१८८)*
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*१८८. मन प्रति सूरातन । त्रिताल*
*हरि मारग मस्तक दीजिये,* 
*तब निकट परम पद लीजिये ॥टेक॥*
*इस मारग मांहीं मरणा, तिल पीछे पाँव न धरणा ।*
*अब आगे होई सो होई, पीछे सोच न करणा कोई ॥१॥*
*ज्यों शूरा रण झूझै, तब आपा पर नहिं बूझै ।*
*सिर साहिब काज संवारै, घण घावां आपा डारै ॥२॥*
*सती सत गहि साचा बोलै, मन निश्‍चल कदे न डोलै ।*
*वाके सोच पोच जिय ना आवै, जग देखत आप जलावै ॥३॥*
*इस सिर सौं साटा कीजे, तब अविनाशी पद लीजे ।*
*ताका सब सिर साबित होवे, जब दादू आपा खोवे ॥४॥*
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भादी० अहंकारार्थकोऽत्र शिरः शब्दो वेद्यः । तथा च प्रभुप्राप्तिमार्गे प्रथममहंकारस्य प्रत्यर्पणमावश्यकम् । तदैव जीव: परमपदस्वरूपं परमात्मानं प्राप्नोति । प्रभुप्राप्तये प्राणमोहं परित्यज्य मृतिरष्यङ्गीकार्या भवति । भविष्यति किं मे भविष्यतीत्यपि साधकेन न विचारणीयम्, यत: प्रभुर्मङ्गलमेव विधास्यति । यथा युद्धक्षेत्रे शूरः स्वार्थभावं परित्यज्यैव स्वामिकार्यार्थ युध्यति तथैव भक्तेनाऽपि प्रभुप्राप्तये स्वपरभावं विहाय विवेकवैराग्यादिसाधनैरहंकारं विनाश्य भक्तिर्विधेया । यथा वा सती नारी सत्यमाश्रित्य निश्चलेन मनसा सत्यां वाचं वदन्ती स्वपतिमनुसरति, प्राणान् विमुच्य पतिलोकं सर्वेषां पश्यतामेव गच्छति तथैव भक्तोऽपि प्रभुपरायण: सन् प्रभुमाश्रित्य विरहाग्नावहंकारं प्रज्वाल्य प्रभुं प्राप्नोति । तदैव भक्तस्य जीवनसाफल्यं संजायते ।
श्रीभागवतेऽप्युक्तम्
सा वाक्यया तस्य गुणान् गृणीते करौ च तत्कर्मकरौ मनश्च ।
स्मरेद्वसन्तं स्थिरजङ्गमेषु शृणोति तत्पुण्यगाथा: स कर्णः ॥
गीतासु च
पुरुषः सः पर: पार्थ भक्त्यालभ्यस्त्वनन्यया॥
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवं विधोऽर्जुन ॥
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यहाँ पर शिर शब्द का अहंकार अर्थ है । प्रभुप्राप्ति के मार्ग में सब से पहले अपने अहंकार को प्रभु के समर्पण करना चाहिये, तब ही परम पद परमात्मा की प्राप्ति होती है । उस प्रभु की प्राप्ति के लिये यदि आवश्यकता हो तो प्राणों का मोह त्यागकर मृत्यु का भी आलिंगन करना चाहए । भविष्य में आगे क्या होगा और पीछे से स्त्री-पुत्रादिकों का तथा सम्पत्ति का क्या होगा, ऐसा विचार नहीं करना चाहिये । क्योंकि मंगलमय भगवान् जो करेंगे वह सब ठीक ही होगा ।
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जैसे युद्धक्षेत्र में शूरवीर तेरा-मेरा इस भाव को बिना विचारे ही स्वामी के कार्य के लिये प्राणों का मोह त्याग कर लड़ता है । ऐसे ही भक्त को भी चाहिये कि तव-मम भाव को छोड़कर विवेक-वैराग्यादि साधनों से अहंकार को त्यागकर प्रभु की भक्ति करनी चाहिये ।
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जैसे सती नारी सत्य का अवलम्बन कर के सत्य बात को बताती हुई पति के लिये चिता में शरीर को भस्म करके सबके देखते पतिलोक में चली जाती है । वैसे ही भक्त भी प्रभुपरायण होकर प्रभु का ध्यान करता हुआ विरह की अग्नि में अपने अहंकार को जलाकर प्रभु को प्राप्त कर लेता है, तब ही भक्त अपने जीवन को सफल मानता है ।
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भागवत में लिखा है कि –
जो वाणी भगवान् का गुणगान करती हैं, वह वाणी वास्तविक वाणी है । हाथ वही अच्छे जिनसे भगवान् के निमित्त कर्म किया जाय । सब प्राणियों में स्थित भगवान् का जिस मन से स्मरण किया जाता है, वही श्रेष्ठ मन है । कर्ण वही श्रेष्ठ, जिन से भगवान् की कथा सुनी जाय । ऐसे ही प्राण वही है जो भगवान् को अर्पण किये जाय ।
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गीता में –
हे अर्जुन ! वह परम पुरुष परमात्मा अनन्य भक्ति से मिलता है ।
हे अर्जुन ! जैसा मैंने तेरे को मेरा रूप दिखाया है, वह अनन्य भक्ति से ही प्राप्त होता है ।
(क्रमशः)

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