🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
https://www.facebook.com/DADUVANI
भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१७८)*
===============
*१७८ (गुजराती) विनती । त्रिताल*
*भक्ति मांगूं बाप भक्ति मांगूं,*
*मूने ताहरा नांऊं नों प्रेम लाग्यो ।*
*शिवपुर ब्रह्मपुर सर्व सौं कीजिये,*
*अमर थावा नहीं लोक मांगूं ॥टेक॥*
*आप अवलंबन ताहरा अंगनों,*
*भक्ति सजीवनी रंग राचूं ।*
*देहनें गेहनों बास बैकुंठ तणौं,*
*इन्द्र आसण नहीं मुक्ति जाचूं ॥१॥*
*भक्ति वाहली खरी आप अविचल हरि,*
*निर्मलो नाउं रस पान भावे ।*
*सिद्धि नें रिद्धि नें राज रूड़ो नहीं,*
*देव पद माहरे काज न आवे ॥२॥*
*आत्मा अंतर सदा निरंतर,*
*ताहरी बापजी भक्ति दीजे ।*
*कहै दादू हिवे कौड़ी दत आपे,*
*तुम्ह बिना ते अम्हें नहीं लीजे ॥३॥*
.
भा०दी०- हे परमपित: परमेश्वर ! त्वामहं भक्ति याचेऽतस्त्वं मां तामेव देहि । तव नाम मम प्रियमस्ति । अतो नाम्येव मम प्रीतिर्जाता । नाहं कैलाशं ब्रह्मलोकादिवासं स्वर्ग वा वाञ्छामि । न होतैर्ममप्रयोजनं सिद्ध्यति किन्तु मां त्वत्स्वरूपाश्रयं देहि । स्वस्वरूपसाक्षात्कारावस्थानं तथा जीवनोपयोगिन्यां भक्तावनुरागच प्रयच्छ । देहे गेहे बैकुण्ठे स्वर्गे वा निवासं नेच्छामि, न च मुक्ति कामये । अहन्तु त्वद्भक्तिप्रियस्तव नामोच्चारणामृतरसप्रियोऽस्मि । अतस्तदेव देहि । न च सिद्धिंऋद्धि देव- पदं वा कामये । हे परमेश्वर ! ममान्तःकरणे गङ्गाम्बुधारावत्प्रवहन्ती अनन्या भक्तिरेवास्तु । नाहं धनाधीश्वरतां याचे । यतस्त्वया विना सर्वं निरर्थकम् । किन्तु भक्तिरेव सर्वेभ्य: श्रेयस्करीति तामेव याचे । तथा हि- प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी ।
त्वामनुस्मरतः हृदयान्माऽपसर्पतु ।
आकर्ण्यमाशु कृपणस्य कृपावचांसि ।
लब्धोऽपि नाथ बहुभिः किल जन्मसंधैः ।
अद्य प्रभो! यदि दयां कुरुषे न मे त्वं ।
त्वतः परं कथय कं शरणं प्रयामि ॥
भागवतेऽप्युक्तम्-
चिरमिह वृजिनार्तस्तप्यमानोऽनुतापै- रवितृषडमित्रोऽलब्धशान्तिः कथञ्चित् ।
शरणद समुपेतस्त्वत्पदाब्जं परात्म-नभयममृतमशोकं पाहि माऽऽपन्नमीश ॥
उक्तं हि भागवते ।
न नाकपृष्ठं न च पारमेष्टयं न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम् ।
न योगसिद्धीरपनुर्भवं वा समञ्जस त्वा विरहय्य काझे ॥
अहं हरे तव पादैकमूलदासानुदासो भविताऽस्मि भूयः ।
मनःस्मरेतासुपतेर्गुणांस्ते गृणीत वाक् कर्म करोतु कायः ॥
.
हे परमपिता परमेश्वर ! मैं आपसे भक्ति मांगता हूँ, अतः भक्ति प्रदान करो । आपके नाम से मेरा बड़ा ही प्रेम है । मैं कैलाश, ब्रह्मलोक, स्वर्गवास इनको नहीं चाहता । इनसे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है । मेरे को तो आप अपने स्वरूप का आश्रय प्रदान करें । स्वरूप का साक्षात्कार करवा कर जीवनोपयोगिनी आपकी भक्ति का अनुराग प्रदान करें । मैं देह, गेह, बैकुण्ठवास तथा मुक्ति की भी कामना नहीं करता ।
.
मुझे तो आपकी भक्ति ही प्यारी है । आपके नामोच्चारण में बड़ा ही रस आता है । अतः वे ही प्रदान करें और मैं ऋद्धि-सिद्धि तथा देव-पद भी नहीं चाहता, क्योंकि वे आपकी भक्ति के बिना निरर्थक हैं, किन्तु आपकी भक्ति तो इन सबसे श्रेष्ठ है । अतः वह ही चाहता हूँ और आप भी वही भक्ति प्रदान करें ।
.
लिखा है कि –
जो शाश्वती प्रीति अविवेकी लोगों की विषय में होती है, ऐसी ही प्रीति आपके नामोच्चारण करते समय मेरे हृदय में बनी रहे । वह दृढ़ प्रीति मेरे हृदय से कभी दूर न हो ।
.
हे नाथ ! चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद अत्यन्त दुर्लभ यह मनुष्य शरीर मिला है, वह ही आपके दर्शन करने का सुन्दर अवसर है । कृपया अब तो मुझ दीन की दर्द-भरी कथा सुनो और मुझे अपनाओ । हे प्रभो ! इस समय भी यदि आप दया नहीं करेंगे तो आपको छोड़कर किसके द्वार पर जाऊं? कोई रास्ता बतलाइये ।
.
हे भगवन् ! मैं अनादिकाल से अपने कर्मफलों को भोगते-भोगते अत्यन्त दुःखी हो रहा हूँ । उनकी दुःखज्वाला दिन-रात मुझे जलाती रहती है । मेरे शत्रु कभी शान्त नहीं होते थे । विषयों की प्यास बढ़ती ही जाती थी । कभी किसी प्रकार से भी क्षण भर के लिये भी मुझे शान्ति नहीं मिली । हे शरणगद ! अब मैं आपके भय, मृत्यु और शोक से रहित चरणकमलों की शरण में आया हूँ । अतः हे जगत् के स्वामी ! आप मुझ शरणागत की रक्षा कीजिये ।
.
श्रीमद्भागवत में भी कहा है कि –
हे हरे ! आप मुझ पर ऐसी कृपा कीजिये कि अनन्य भाव से आपके चरण कमलों के आश्रित सेवकों की सेवा करने का अवसर मुझे अगले जन्म में भी प्राप्त हो । हे नाथ ! मेरा मन आपके मंगलमय गुणों का स्मरण करता रहे । मेरी वाणी उन्हीं का गान करें और शरीर आपका ही काम करता रहे । हे नाथ ! मैं आपको छोड़कर न स्वर्ग लोक, न ब्रह्मलोक, न भूमण्डल का सार्वभौम राज्य, न रसातल का एक मात्र राज्य चाहता हूँ और न योग की सिद्धियाँ । यहाँ तक कि मुझे मोक्ष भी नहीं चाहिये ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें