रविवार, 3 अप्रैल 2022

*खालसे का अंग १९२(१-४)*

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*अपना अपना कर लिया, भंजन माँही बाहि ।*
*दादू एकै कूप जल, मन का भ्रम उठाहि ॥*
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टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*खालसे का अंग १९२*
इस अंग में उस स्थिति का विचार कर रहे हैं जिस पर किसी अन्य का अधिकार न हो ~
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देवल१ गुमट२ देह सब, लिखी लिखाई साखि ।
तहां पढे पढि सीखली, गुरु क्यों रखै सु राखि३ ॥१॥
सब देह देवमंदिर१ के गुंबज२ के समान हैं । जैसे गुंबज पर दूसरों की लिखाई हुई साखी लिखी देखकर पढे हुये लोग पढकर सीख लेते हैं, वैसे ही कोई किस मनुष्य से कोई किस मनुष्य से सुनकर साखियाँ सीखकर अपने आप ही ज्ञानी बन जाता है, गुरु के अधिकार में नहीं रहता उसको गुरु अपनी सुरक्षा३ में कैसे रक्खेंगे ? 
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अचेत१ आतमा अवनि गति२, पड्या वचन वित३ लाध ।
रज्जब पाया पारखू४, किस का करै अराध ॥२॥
अज्ञानी१ जीवात्मा पृथ्वी में पड़ा धन३ मिलने वाले मनुष्य के समान२ है । जैसे वह किसी की नौकरी नहीं करता, वैसे ही जिस अज्ञानी को पुस्तक में वचन मिल जाते हैं तब वह किसका आराधन करे, वह गुरु की तथा ईश्वर की आराधना करके उनके अधिकार में नहीं रहता किंतु परीक्षक४ ज्ञानियों द्वारा वह व्यवहार आदि से पाया जाता है अर्थात उसे ज्ञानी जन जान लेते हैं कि यह अज्ञानी है ।
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अपने अपने रंग में, राते माते प्राण ।
रज्जब को मूरख नहीं, समझे सबै सयाण ॥३॥
सभी प्राणी अपने अपने रंग ढंग में रत्त मत्त हैं, कोई भी मूर्ख नहीं है सभी समझे हुये और चतुर हैं ।
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करि कटाक्ष मस्तक धरहिं, सोई होय अनूप ।
बारंबार सु बेणि२ परि, तो क्यों न होय रस३ रूप ॥४॥
तिरछी१ चितवन से जिसका मस्तक पकड़ती है, उसके लिये वही अनुपम सुन्दरी हो जाती है । जिसका हाथ बारम्बार नारी की चोटी२ पर जायगा तब उस पुरुष में काम३-क्रीड़ा का रूप क्यों न प्रगट होगा ? और उस पर किसका अधिकार रहेगा ?
(क्रमशः)

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