शनिवार, 2 अप्रैल 2022

*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ ३३/३६*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ ३३/३६*
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रूप रेख जाकै नहीं, उपज्या आया नाहिं ।
कहि जगजीवन सकल हरि, साध कहैं सब माहिं ॥३३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिनका कोइ रुप न आकृति है जो कभी जन्मा व आया भी नहीं है, वे प्रभु ही सर्वत्र हैं ऐसा सब संत कहते हैं ।
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सकल साध सब मांहि हैं, सिध साधक मुंनि दत्त ।
दादू गुरु की क्रिपा थैं, जगजीवन वहाँ रत्त१ ॥३४॥
(१. रत्त=मन लगाये रहे)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु सब ही सिद्ध साधकों व मुनि जन को भरपूर देते हैं । और गुरु महाराज की कृपा जहाँ होती है, वहीं संत रत रहते हैं मग्न रहते हैं ।
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कहि जगजीवन रांम रत, सतगुरु सौं करि सीर२ ।
जग मैं अैसैं जांणिये, (जैसैं)ध्रू प्रहलाद कबीर ॥३५॥
{२. सीर=साझा(सहभागिता)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो राम में रत है और जो गुरु महाराज से सभी प्रकार की सहभागिता रखता है वह संसार में ध्रुव प्रहलाद व कबीर जैसे यशस्वी है ।
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ध्रू प्रहलाद कबीर ज्यूं, गोरख ज्यूं गुण गाइ ।
दादू गुरु की क्रिपा थैं, जगजीवन तहां आइ ॥३६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ध्रुव, प्रहलाद कबीर जैसे व गोरखनाथ जी जैसे जो प्रभु की महिमा करते हैं गुरु कृपा से संत वहाँ ही जाते हैं ।
(क्रमशः)

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