शनिवार, 30 अप्रैल 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१८९

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१८९)*
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*१८९. कलियुगी । त्रिताल*
*झूठा कलियुग कह्या न जाइ, अमृत को विष कहै बनाइ ॥टेक॥*
*धन को निर्धन, निर्धन को धन, नीति अनीति पुकारै ।*
*निर्मल मैला, मैला निर्मल, साध चोर कर मारै ॥१॥*
*कंचन काच, काच को कंचन, हीरा कंकर भाखै ।*
*माणिक मणियाँ, मणियाँ माणिक, साँच झूठ कर नाखै ॥२॥*
*पारस पत्थर, पत्थर पारस, कामधेनु पशु गावै ।*
*चन्दन काठ, काठ को चन्दन, ऐसी बहुत बनावै ॥३॥*
*रस को अणरस, अणरस को रस, मीठा खारा होई ।*
*दादू कलिजुग ऐसा बरतै, साचा बिरला कोई ॥४॥*
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भा०दी० - मिथ्याव्यवहारं मायाप्रधानं कलियुगं वाचाऽपि वर्णयितुमशक्यम् । अस्मिन् युगे प्राय: सर्वेऽपि प्राणिनः सत्यां वेदवाचं हितार्थबोधिकां सुशोभमानामप्युपेक्षन्ते । अमृतस्वरूपामपि मिथ्यां वदन्ति । रामधनप्रधानमनाढ्यं भक्तं निर्धनमिति मत्वा तिरस्कुर्वन्ति । भक्तिधनहीनं धनधर्म जनं सत्कुर्वन्ति पूज्यन्ते च । उत्तमां नीतिमनीति निगदन्ति । भक्तिभावितमुत्तमजातिहीनं तं भक्तं त्यजन्ति ।
यद्यपि दुर्गुणैर्मलिनमुत्तमजातिजातं पुरुष निर्मलमिति मन्यन्ते । साधुपुरुषं तस्करवन्मत्वा निन्दन्ति । दम्भिनं साधु वदन्ति । सद्गुणैः श्रेष्ठ कञ्चनवदुज्ज्वलमपि पुरुषं काचवत्तुच्छं मन्वते । गुणहीनं लोभाभिभूतं वस्त्रभूषणादिनासुशोभितं जनं सुवर्णवन्मूर्धाभिषिक्तं स्वीकुर्वन्ति । हीरकवबहुमूल्य- तुल्यं तस्मार्तपथप्रतिपादितमर्थं परिहरन्ति । हरिनामधेयं प्रस्तरवत्तुच्छं मत्वा परित्यजन्ति । उत्तम-विचारशीलं काष्ठवच्छुष्कविचारवानयमिति प्रलपन्ति । शुभविचारशून्यं स्वार्थसिद्धिपरं वावदूकमिति मत्वा माणिक्यवदामन्ति । सत्यवादिनमपि मिथ्यावादिनं मत्वा न विश्वसन्ति । पारसमणिसममिव सद्गुरूं सामान्यनर इव जानन्ति । पाषाणवत् साधारणं जनं पारसमणिमिव सम्मानयन्ति । कामधेनुं पशुमिति वदन्ति । चन्दनवद्गुणसुगन्धयुक्तमपि जनं काष्ठवन्निर्गुणं पश्यन्ति । अनृतवादिनं सर्वधर्मशून्यं जनं चन्दनवताशं सन्ति । रामामृतरसं नीरसं निगदन्ति । भक्तिरसविहीनं मदिरादिरसमिष्टमितीच्छन्ति । श्रौतस्मार्तादियुक्तं वर्णाश्रमाचारप्रवर्तकं हितकारकत्वेन मधुरमपि कटु वदन्ति । अहो ! ईदृशोऽयं कलिकालस्तस्मिन् कश्चिदेव सदाचारसंपन्नो दृश्यते ।
उक्तं हि वायुपुराणे -
कल्किनोपहताः सर्वे म्लेच्छा यास्यन्ति सर्वशः ।
अधार्मिकाश्च तेऽत्यर्थं पाखण्डाश्चैव सर्वशः ॥
असाधनाहतास्वाश्च व्याधिशोकेन पीडिताः ।
अनावृष्टिहताश्चैव परस्परवधेन च ॥
अनाथा हि परित्रस्ता वार्तामुत्सृज्य दुःखिताः ।
त्यक्त्वा पुराणि ग्रामांश्च भविष्यन्ति वनौकसः ॥
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मिथयादिक व्यवहार वाले इस कलियुग का वाणी से वर्णन नहीं हो सकता । इस कलियुग में प्रायः सारे प्राणी वेद रूप सत्यवाणी को भी जो हित अर्थ का बोधन करती है और शास्त्रों से भी प्रमाणित है, उसको भी मिथ्या कहते हैं । जो भक्त रामधन का धनी है उसको भी निर्धन कहकर तिरस्कार करते हैं और जो भक्तिधन से हीन है और धन को ही धर्म समझता है ऐसे मनुष्य को धनवान् कहते हुए प्रतिष्ठा करते हैं । उत्तान नीति को अनीति बतलाते हैं ।
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जो भक्ति से पवित्र है लेकिन जाति से नीच है, उस भक्त का तिरस्कार करते हैं । जो अनेक दुर्गुणों से मैला है लेकिन उत्तम जाति का होने से उसको निर्मल मानते हैं । साधु पुरुषों को चोर बताकर ताड़ना देते हैं । सद्गुणों से श्रेष्ठ कंचन की तरह सुशोभित मनुष्य को काच की तरह निःसार समझते हैं । जो गुणहीन, दम्भी मिथ्याभाषी तथा ऊपर से काच की तरह सुन्दर वेशभूषा से अच्छा लगता है उसको सर्वश्रेष्ठ मानते हैं । बहुत मूल्य से भी जो प्राप्त नहीं हो सकता, ऐसे हीरे की तरह सुन्दर हरिनाम को पत्थर की तरह तुच्छ समझ कर त्याग देते हैं ।
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माणिक्य की तरह सद्गुण संपन्न श्रेष्ठ विचारवान् मनुष्य को काठ की तरह शुष्क विचार वाला बतलाते हैं । जो उत्तम विचारों से शून्य स्वार्थसिद्ध करने में लगा है, ज्यादा बोलता है, उसका माणिक्य की तरह बड़ा ही समादर करते हैं । सत्य बोलने वाले को भी असत्य बोलने वाला समझकर उसका कोई विश्वास नहीं करता । पारस के सदृश सद्गुरु को भी सामान्य मनुष्य समझते हैं । जो सामान्य मनुष्य हैं, जिसमें कोई गुण-विशेष नहीं, उसका पारस की तरह बहुत आदर करते हैं ।
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कामधेनु को भी सामान्य पशु समझते हैं । चन्दन की तरह अनेक गुणों की सुगन्धि वाले मनुष्य को काष्ठ की तरह निर्गुण समझते हैं । जो झूंठ बोलने वाला सर्व धर्म बहिष्कृत मनुष्य हैं उसका चन्दन की तरह समादर करते हैं । जो रामधन सरस है(आनन्द का देने वाला) उसको भी नीरस कहते हैं । जो मदिरा आदि नीरस पदार्थ हैं उनको वास्तविक रसवाला कहते हैं । जो श्रौतस्मार्त आचार तथा वर्णाश्रम धर्म प्राणियों के लिये हितकर होने से मधुर हैं, उनको भी कटु समझकर त्याग देते हैं । यह कलियुग ऐसा युग है कि इसमें श्रौतस्मार्त आचारवान् विरले ही मिलते हैं ।
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वायु पुराण में लिखा है कि –
कलि के धर्मों से उत्पन्न होकर प्रायः सभी प्राणी म्लेच्छ, अधार्मिक, पाखण्डी बन जायेंगे । साधनहीन, निर्धन, व्याधि और शोक से पीड़ित हो जायेंगे । वर्षा न होने से दुःखी, एक दूसरे को परस्पर में मारने वाले तथा अनाथ हो जायेंगे और नगर तथा ग्रामों को त्याग कर वन में रहने लगेंगे, क्योंकि व्यवसायरहित होकर दुःखी रहने लगेंगे ।
(क्रमशः)

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