शुक्रवार, 29 अप्रैल 2022

*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ ७७/८०*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२३. पिव पिछांणन कौ अंग ~ ७७/८०*
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पूरब की पच्छिम धरै, उत्तर दक्खिन देस
कहि जगजीवन सकल हरि, सो हरि रांम नरेस ॥७७॥ 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि विद्वता प्रदर्शन की चाह में लोग बिल्कुल विपरीत दिशा व असंबंधित भी बोल जाते हैं यथा पूरब की पश्चिम, व उत्तर की दक्षिण, जिसे राम नाम से काम है वे तो बस उसी रामनाम धन से ही राजा है ।
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पासि प्राणपति परम गुरु, सब थैं निकट निवास । 
तेज पुंज प्रकास हरि, सु कहि जगजीवन दास ॥७८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो निकट प्रभु हैं वे ही हमारे प्राण पति हैं । परम गुरु हैं और सबसे निकट वे ही रहते हैं । उन्हीं के तेज पुंज प्रकाश से हम प्रकाशित हैं ।
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ररंकार ओंकार हरि, जे जे कारज कार ।
कहि जगजीवन नांव गुन, वो ओंकार अकार ॥७९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि रं रंकार और औं कार इन्हीं से सब कारज होते हैं । संत कहते हैं कि इस नाम में जो गुण है उसका स्वरूप ही औंकार है ।
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सुषन१ उजीर खुदाइ का१, दरगह२ आवै जाइ ।
कहि जगजीवन पाक दिल३, तिस मंहि रहै समाइ ॥८०॥
(१-१. सुखन उजीर खुदाइ का- वह पवित्र वचन जो भगवत्प्राप्ति हो)   (२. दरगह-मन्दिर या मस्जिद की देहली)   (३. पाक दिल-पवित्र ह्रदय) 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वह पवित्र वचन जिससे प्रभु इस शरीर रुपी मंदिर में आते जाते रहते हैं जिससे भगवत् प्राप्ति  होती है । वह ही पवित्र देह मन है जिसमें प्रभु समाये रहते हैं ।
(क्रमशः)  

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