शनिवार, 30 अप्रैल 2022

*श्री रज्जबवाणी पद ~ ६*

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*इन्द्री के आधीन मन, जीव जंत सब जाचै ।*
*तिणे तिणे के आगे दादू, तिहुं लोक फिर नाचै ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
अथ राग राम गिरी(कली) १, गायन समय प्रातः ३ से ५
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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६ विनय । कहरवा
अब मोहि नाचत राख१ हु नाथ,
चार प्रहर च्यारों जुग नाच्यो, परि२ परवश पर हाथ ॥टेक॥
तृष्णा ताल पखावज पाखँड, स्वर स्वारथ सब बाजे ।
क्यों नर कुमति उपंगई राखा, रागरु द्वेष निवाजे ॥१॥
नाना नेह पहरि पग नूपुर, चंचल चरण चलाये ।
चौरासी घाट भेख४ रेख५ सोई, सब संगीत कहलाये ॥२॥
फोरी६ फिर्यो मान मनमानी, हुरमी हेत७ सु८ डारी९ ।
सवेग भूमि पाताल परे१० पग, भीख न लही भिखारी ॥३॥
रज्जब रम्यो११ रजा१२ कि१३ कर्मगति, कौन लुकंजन पावे१४ लाल१५ ।
रीझै राम दर्श दत१६ दीजे, पूरो सो कीजे प्रतिपाल ॥४॥६॥
संसार से मुक्त होने के लिये विनय कर रहे हैं -
✦ हे नाथ ! अब मुझे नाचते हुये रोक१ दीजिये । मैं चारों युग के प्रति दिन में चार पहर ही परवश हो अर्थात मन इन्द्रियों के अधीन होकर, पर हाथ अर्थात कुटुम्बादि के हाथ पड़ा२ हुआ व्यवहार रूप नृत्य करता रहा हूँ ।
✦ तृष्णा रूप कर ताल, पाखण्ड रूप मृदंग आदि मेरे सब बाजे स्वार्थ रूप स्वर निकालते रहे हैं अर्थात स्वार्थ के वश पाखंडादि करता रहा हूँ । प्रभो ! आपने मुझ नर में कुमति रूप उपंग नामक बाजा क्यों रक्खा है ? और मुझ में राग द्वेष रखने की दया३ क्यों की है ?
✦ मैंने राग के कारण नाना विषयों में स्नेह करना रूप नूपुर पैरों में पहन कर चंचलता से उन विषयों की ओर ही चरण चलाये हैं । चौरासी लाख योनियों के शरीर धारण करना ही स्वांग४ चिन्ह५ बनाकर सब को इस संगीत के अखाड़े में खिलाया है ।
✦ मन मनो हलकी६ बातों को श्रेष्ठ मान कर तथा हुरुमयी नामक नृत्य७ के प्रेम में फंस कर श्रेष्ठता८ को डाल९ दिया है अर्थात मर्यादा को छोड़ दिया है । इस नृत्य के समय मेरे पैर स्वर्ग, भूमि, पातल, तक पड़े१० किन्तु फिर भी मुझ भिक्षु को अक्षय सुख रूप भिक्षा नहीं मिली अर्थात तीनों लोकों के भोग सुख अक्षय नहीं हैं, अतः तीनों लोकों में जाने पर भी मेरी इच्छा पूर्ण नहीं हुई ।
✦ मैं आपकी आज्ञा१२ वा१३ कर्म की गति किसी भी कारण से यह संसार भ्रमण११ रूप नृत्य करता रहा, उस के कारण को लकुंजन(छिपाने वाला अंजन) डाल१४ कर आपसे कौन छिपा सकता है ? आप तो सर्वज्ञ हैं अतः आपको सब ज्ञात है । प्रियतम१५ राम ! मेरे इस नृत्य से आप प्रसन्न हैं तो मुझे अपना दर्शन रूप दान१६ दीजिये । अप्रसन्न हैं तो मेरा नृत्य बंद कर दीजिये और मेरा नृत्य पूरा हो गया है तो मुझे अपने स्वरुप में लीन कर के संसार भ्रमण से मेरी रक्षा कीजिये ।
(क्रमशः)

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