शनिवार, 30 अप्रैल 2022

*गुरु-महिमा । ज्ञानयोग*

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*एक कहूँ तो दोइ हैं, दोइ कहूँ तो एक ।*
*यों दादू हैरान है, ज्यों है त्यों ही देख ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ हैरान का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(२)गुरु-महिमा । ज्ञानयोग*
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श्रीरामकृष्ण चुपचाप बैठे हुए महिमाचरण आदि भक्तों को देख रहे हैं । 
श्रीरामकृष्ण ने सुना है कि महिमाचरण गुरु नहीं मानते । इस विषय पर वे कहने लगे –
श्रीरामकृष्ण - गुरु की बात पर विश्वास करना चाहिए । गुरु के चरित्र की ओर देखने की आवश्यकता नहीं । 'मेरे गुरु यद्यपि शराबवाले की दूकान जाते हैं, फिर भी मैं उन्हें नित्यानन्द राय मानता हूँ', यह भाव रखना चाहिए ।
"एक आदमी चण्डी भागवत सुनाता था । उसने कहा, झाडू स्वयं तो अस्पृश्य है, परन्तु स्थान को पवित्र करता है ।"
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महिमाचरण वेदान्त की चर्चा किया करते हैं । उद्देश्य ब्रह्मज्ञान है । उन्होंने ज्ञानी का मार्ग ग्रहण किया है और सदा ही विचार करते रहते हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (महिमा से) - ज्ञानी का उद्देश्य है, वह स्वरूप को समझे; यही ज्ञान है और इसे ही मुक्ति कहते हैं । परब्रह्म जो हैं, वे ही सब के स्वरूप हैं । मैं और परब्रह्म दोनों एक ही सत्ता हैं । माया समझने नहीं देती । हरीश से मैंने कहा, 'और कुछ नहीं - सोने पर कुछ टोकरी मिट्टी पड़ गयी है, उसी मिट्टी को निकाल देना है ।'
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“भक्तगण ‘मैं’ रखते हैं, ज्ञानी नहीं रखते । किस तरह स्वरूप में रहना चाहिए, 'न्यांगटा' (तोतापुरी) इसका उपदेश देता था, कहता था, 'मन को बुद्धि में लीन करो और बुद्धि को आत्मा में, तब स्वरूप में रह सकोगे ।’
"परन्तु 'मैं' रहेगा ही, वह नहीं जाता । जैसे अनन्त जल राशि, ऊपर-नीचे, सामने-पीछे, दाहिने-बायें पानी भरा हुआ है । उसी जल के भीतर एक जलपूर्ण कुम्भ है । 'मैं' रूपी कुम्भ ।
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"ज्ञानी का शरीर ज्यों का त्यों ही रहता है; परन्तु इतना होता है कि ज्ञानाग्नि में कामादि रिपु दग्ध हो जाते हैं । कालीमन्दिर में बहुत दिन हुए आँधी और पानी दोनों एक साथ आये, फिर मन्दिर पर बिजली गिरी । हम लोगों ने जाकर देखा, कपाट ज्यों के त्यों ही थे, नुकसान नहीं हुआ था, परन्तु स्क्रू जितने थे उनका सिर टूट गया था । कपाट मानो शरीर है और कामादि आसक्तियाँ जैसे स्क्रू ।
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“ज्ञानी केवल ईश्वर की बात चाहता है । विषय की बातें होने पर उसे बड़ा कष्ट होता है । विषयी और दर्जे के हैं । उनकी अविद्या की पगड़ी नहीं उतरती; इसीलिए घूम घामकर वही विषय की बात ले आते हैं ।
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"वेदों में सप्त भूमियों की बातें हैं, पंचम भूमि पर जब ज्ञानी चढ़ता है, तब ईश्वरी बात के सिवा न तो कुछ और सुन सकता है, न कह सकता है; तब उसके मुँह से केवल ज्ञान का उपदेश निकलता है ।
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"वेदों में सच्चिदानन्द ब्रह्म की बात है । ब्रह्म न एक है, न दो, एक और दो के बीच में है । उसे न तो कोई अस्ति कह सकता है, न नास्ति । वह अस्ति और नास्ति के बीच की वस्तु है ।
(क्रमशः)

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